गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

मैंने कोई डायरी नहीं लिखी

तुमसे मिलने के बाद

जानते हो ...पन्नों पर

सिर्फ़ हिसाब- क़िताब लिखे जाते हैं

क्यूंकि मेरे तुम्हारे सिवा

कोई और न समझ सकेगा

वो सांसे लेती नोटबुक वाली बात

रूपये भर की पगार वाली

नौकरी की बात

...............................संध्या

सपनों की भ्रूणहत्या के बाद

जला दिये वो सभी साक्ष्य

जो दुनिया की ओर इशारा करते थे

उसकी नाराज़गी ख़ुद से थी

इसलिए छोड़े गये नोट में लिखा
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अपनी मौत का ज़िम्मेदार ख़ुद हूँ

-संध्या यादव
सालों ढूँढता फिरा था

खण्डहरों, गुफाओं और शिलालेखों में

धरती में दफ़न पुराने जीवन के निशान

अंत में सभ्यता मिली

भोजपत्रों, क़िताबो व अख़बारों में

-संध्या
कुछ की स्मृतियाँ

क़िताबें,

मोमबत्ती की रौशनी,

कुछ स्याही से रंगे

कुछ सादे पन्ने,

और कुछ तस्वीरें

कैसे कह दूँ कि
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रात अकेली गुज़री

-संध्या
मरा लोहा फ़ौलादी है

जश्न मनाता है पीठ पर पड़ते

हथौड़े की हर चोट का

जिंदा रहा तो गला देगा ख़ुद को
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बेहतर है कि साँस लेना छोड़ दे

-संध्या यादव
बाहर दालान में बैठे अगले छः जन्मों के प्राणनाथ जब 'सुनती होऽऽऽ' की हाँक लगाते हैं तो 'सुनती हो' सारा कुटना पीसना छोड़ छाड़कर साढ़े छः मीटर की साड़ी, डेढ़ हाथ का घूँघट, हाथों में पाँच दर्जन चूड़ियाँ, ढाई सौ ग्राम की पाजेब और न जाने क्या क्या पहने एक पैर पे चकरघिन्नी की तरह गिरती पड़ती दौड़ी चली आती हैं।बाहर वाले फलाने की दुलहिन और जब तरक्की हो जाये तो चुन्नू की महतारी हो जायें। लगता है जैसे 'सुनती हो' के माँ बाप ने उनका कोई नाम ही नहीं रखा कभी।
इन पंछियों को कौन समझाए

चले आते हैं दूर देश से

चुग्गे की तलाश में

दो देशों की सरहदों के बीच

नो मेंस लैंड के आसमान में उड़कर

-संध्या यादव
कमाल है तुम वही हो

पर हर पल बदलती है
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तस्वीर तुम्हारी

-संध्या यादव
बचपन की कहानियाँ याद करती हूँ तो सबमें एक ही बात घुमा फिराकर थी। कि एक थी राजकुमारी बहुत सुंदर। उसका प्रिय खिलौना आईना जिससे वो अक्सर पूचा करती थी बता धरती पर सबसे सुन्दर कौन। और आईना तारीफ़ों के पुल बाँधते हुए कहता था-तुम राजकुमारी। हर कहानी में कोई डायन या सौतेली माँ होती थी जो राजकुमारी को मारना चाहती है। कभी सात बौने या कोई राजकुमार उसे बचाने को आता था और अंत में उससे शादी कर लेता था। बस कहानी ख़तम हो जाती थी। कभी कोई स्नोव्हाईट या सिंड्रेला किसी राजकुमार को नहीं बचाती थी और तो और सालों सोई रहने वाली ये राजकुमारियाँ ख़ुद अपना बचाव नहीं करतीं।कितने ताज्ज़ुब की बात है हमने जीवन के हर क्षेत्र में नयीं चीज़ें ईजाद की हैं पर अपनी परियों के लिए कोई नई कहानी नहीं गढ़ी। क्यों हम उसे रात बिस्तर पर सुलाने से पहले नहीं कहते कि- बिटिया तुम्हारे जैसी एक थी कल्पना चावला, एक है kiran bedi, एक है सुनीता विलियम्स और एक है इंदिया नूई। कहेंगे भी कैसे हमने तो पहले ही तय कर रखा है कि खिलौने की दुकान पर रखी नाज़ुक गुड़िया ही हमारी नन्हीं बिटिया की पसन्द बनेगी।

-संध्या यादव
हम लाख कहते फिरें कि लड़कियों के प्रति लोगों की सोच बदल रही है पर सच तो यह है कि हमें अपनी सुविधानुसार बदला गया है।जैसे गृहस्थी का कोई ओल्ड फ़ैशन्ड सामान बदला जाता है या फ़िर वास्तुदोष होने पर घर का नक्शा बदल दिया जाता है। काहे को सुंदरता का पैमाना 36 24 36 (जो भी हो इंटरेस्टेड लोग सुविधानुसार पढ़ लें) है।टेनिस और बैडमिंटन में क्यों महिला खिलाड़ियों को ऊँची स्कर्ट पहनने जैसे नियम बनाये जाते हैं। क्या सभी दर्शक उनका खेल देखने ही जाते हैं? आज़ादी देने का दँभ भरने वाले पहले ये तो देखें कि हमें कितनी मात्रा और कितने ग्राम आज़ादी की खुली हवा दी गयी है।क्यों कंडीशन्स अप्लाई की तख़्ती हर वक़्त गले में लटकी रहती है। शीला मुन्नी बदनाम होने और अपने फोटो को सीने से चिपकवाने वालियाँ अपनी आधी से ज़्यादा देह दिखाने, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक क़सरत करवाने के बाद भी क्यों खानों और बाक़ी अभिनेताओं से कम मेहनताना पाती हैं। कभी अख़बारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञपनों पर ग़ौर कीजिए कैसे मनमाफ़िक बहुओं की डिमांड की जाती है. एक वेल सेटेल्ड लड़के के लिए
पढ़ी लिखी
पतली
सुंदर
लम्बी
गोरी
नौकरी पेशा
कुण्डली दोषमुक्त
गृह कार्य में दक्ष
सँस्कारी कन्या चाहिए। और अब भी कहते हैं कि मानसिकता बदल रही है।
तुम्हारी चुप और

हँस रहा है मुझपर

ड्राइंग रूम में रखा
.
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लॉफ़िंग बुद्धा

-संध्या
मँझली नहीं उतरती अब छत से

रात गये बापू भईया को खाना देने

जबसे पिछले जेठ की रात

भितरी कच्ची कोठरी की धन्नी से

हँसमुख बड़की लटकी मिली थी

-संध्या
कुछ ज़्यादा नहीं माँगा

बस वापस लौटा देना

विदा से पहले के

कुछ क्षण मुझे

-संध्या
मैं अक्सर तुम्हें

बहने नहीं देता अपनी आँखों से

कुछ तैरते हुए जो ख़्वाब बुने थे

उन दिनों जब हमारे क़स्बों की

हवाएँ एक हुआ करती थीं

हम दूर से पहचान लिया करते थे

एक दूसरे की ख़ुशबू

शब्द मौन साथी होते थे

हाथ थामें तय करते थे 


मीलों के फ़ासले बिना बोले

मैं तुम्हारा स्पर्श लेकर उसे

बंद कर दिया करता था सीपियों में

अब भी पहुँच जाया करता हूँ

आदतन उन मोतियों की तलाश में

डाल दिया करता हूँ कुछ सिक्के

तुम्हारे नाम के

हर पोखर और तालाब में

तुम्हारे गालों का सुर्ख़ लाल

उस रोज़ बह गया था

सुना है ढूँढा करते हैं लाल मूँगे

परले गाँव की नदी में मछुआरे आजकल

-संध्या
जो बिन बात के पड़ जायें गले

तार्रुफ़ किया करते हैं उनसे

फ़क़त दुआ- सलाम से

सफ़र जारी है बदस्तूर गोया

नये शहर में पतंगें भी
उड़ाते हैं

हवाओं की साँठ- गाँठ से

-संध्या
अलसुबह तुम पूछ बैठे थे

अचानक मुझसे

मेरे इश्क़ का पैमाना

और उसी शाम चुरा ली थी

तुम्हारी दाल से

नमक़ की डली मैंनें

-संध्या

संस्मरण

पता नहीं आप सबने ये क़रतूत की है या नहीं पर मैंने तो ख़ूब की है। जब तक पेंसिल रबर वाले विद्यार्थी जीवन में थी दूध में पेंसिल का छिलका और आक़ के पत्तों का दूध मिलाकर लगभग हर रोज़ धूप में कुछ घंटों के लिए रखा करती थी और उसके बड़ी रबर में बदलने का किसी सांइटिस्ट की ख़ोज सरीखा इंतज़ार किया करती थी। ख़ैर रबर तो आजतक नहीं बनीं पर लगभग हर दिन मेरी तुड़ईया ज़रूर होती थी
.....एक ढीठ लड़की का संस्मरण से

बिटिया

सुनो.. कोई कुछ भी कहे

पर हम जानते हैं कि

आते ही वो भी रोयेगी

बेटों की तरह

लोहे का बर्तन नहीं बजवायेंगे

अपनी बिटिया के लिए

गुड़िया, छुटकी, रानी, सोना

नाम कोई भी रख देना

पर नींद नहीं आयेगी

सिंड्रेला स्नोव्हाइट की फंतासी सुनकर

उसके लिए हम मिलकर

कहानियाँ नये ज़माने की बुनेंगे

हमारे आंगन में कोई

दीवार नहीं होगी

जिसमें हमारी बिटिया बढ़ेगी

सपनों संग कदम्ब के पेड़ की तरह

हर जन्मदिन पर कुछ

गहने दिया करेंगे उपहार स्वरूप

दुलार, आत्मविश्वास...

जज़्बा और पंख देंगे सोलहवें बरस

ताकि दूर बहुत दृर उड़ सके

भर ले नील गगन को अपनी साँसों में

देहरी सा नहीं जड़ेंगे एक से दूसरे घर

तुम नींव हो हमारी

तुम्हारी मर्जी की हर ईंट चुनेंगे

और हां तुम मत घबराना

बेखौफ़ लक्ष्य साधकर कंचे खेलना,

जिंदगी से दौड़ लगाना

उम्मीदों के ताश फ़ेंटना

वक़्त की पतंग साधकर

हौसले के जाम लड़ाना

सुनो कोई कुछ भी कहे

पर हम बिटिया को बड़ा करेंगे

उसके "मैं" की तरह
उसने हुनर पाया था

दर्द औरों के महसूसने का

ये उसके सपनों का हिस्सा थे

जो सारी रात जगाते थे

आँखे बहतीं शब्द बनकर

लोग समझ बैठे वो इश्क़ में है

-संध्या

.........

तुम टेकते रहो माथा

काशी काबा में

साल मेरी उम्र के बढ़ाने को

मैं दिन अपने गिन रहा हूं

उँगलियों पर हार के

-संध्या

.....

मेरा श्रद्धेय मेरे मन में है

बता दूं तो तमाशा है

छुपा ले जाऊं अगर

तो नास्तिक ठहरा

-संध्या

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

वो कमरा

वो कमरा कुछ भी नहीं लगता मेरा

पर जैसे वहाँ सबकुछ है मेरा

वो चुप साधे ख़ामोश खड़ा रहता है

पर अकेले में सजता सँवरता है

उसका लकड़ी का दरवाज़ा

कुछ आवाज़ यूँ करता है

जाऊँ जब भी मिलने उससे

जैसे लिपटकर मुझसे रोता है

उसकी खिड़कियों की साँकल ढीली है

एक धूप का टुकड़ा वहाँ

जो अटका रहता है

वो कमरा कुछ भी नहीं लगता मेरा

पर जैसे वहाँ सबकुछ है मेरा

रोटी बाँटकर हमने उसमें

सँग एक दूजे के खायी है

बर्तनों का रंग इसके अजीब सा है

सपने जो इनमें पकाये हैं

ज़िंदगी के स्पर्श में

वहाँ अब भी नमीं है

सुईयाँ दीवार घड़ी की

वैसे ठहरी हुई हैं

किसी के आने के जैसे इंतज़ार में है

वो कमरा कुछ भी नहीं लगता मेरा

पर जैसे वहाँ सबकुछ है मेरा

-संध्या यादव

रात से बातें

मैंने अपने हिस्से का

एक टुकड़ा चाँद तोड़कर

तैरा दिया था नदी में

ठँड से नीला पड़ा

दाँत कटकटाते हुए

भोर से पहले शायद

पहुँचता होगा

तुम्हारे शहर को

-संध्या यादव


गणतंत्र दिवस पर

यहाँ इस वक़्त कोहरा बहुत है और गणतँत्र के निशान बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिल रहे है।क्षणिक देशभक्ति की बदन में सनसनाहट पैदा करने वाला कोई गीत भी नहीं पर हाँ शिवालयों से भोर वंदन की धुनें बज रही हैं।साटन का झबला और कानों में ठंड से बचने के लिए कपड़ा बाँधे छोटी भारतमाता इंडिया मार्का हैंडपम्प से पानी भरने जा रही हैं। उसके घर रात की पतीली मांजने को पड़ी है और छोटा भईया के लिए आज उसे फूल की माला भी बनानी है। रोटियाँ भी सेंकनी होंगी क्योंकि आज वह लड्डू के लालच में गाँव वाले स्कूल जल्दी जायेगा। इस छोटी भारत माता के हिस्से का गणतँत्र पता नहीं कहां मुंह छिपाये बैठा है। शायद बड़ी सी पतीली में नन्हीं बाँहे डाले वो गणतंत्र ढूँढ रही है।और उसकी अम्मा दिन में खेत मालिक और रात में बापू की कुटाई से बेहाल खटिया पर मुँह छिपाये गणतंत्र की पीठ सहला रही है।महीने भर पहले बनी पक्की सड़क से गणतंत्र रोड़ियों और गिट्टियोँ की शक्ल में उधड़ गया है। आँगनबाड़ी के मिड डे मील की थाली में दाल के नाम पर गणतंत्र उतरा रहा है। ख़ैर आप सबको और छके पेट वालों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ
यहाँ हर उस सपने की क़ीमत है

जिसमें अँधेरे रातों के


दिन कहे जाते हैं


वक़्त को घड़ी की सुईयों में 


बाँध लेना छलावा है


भला कहीँ दर्द भी 


तहज़ीब से लिखे जाते है


-संध्या यादव

धूप

एक मुट्ठी धूप और

इतनी ही ओस जब

मिलाकर रखी

सपनों की आँच पर

उम्मीदें फैल गयीं सब ओर

कोहरा कोहरा जैसे

-संध्या यादव
एक अरसा हुआ जब हमारी मित्र ने हमें सलाह दी थी कि या तो असली जाति को पहले ही बदल दिया होता या जाहिर न होने दिया करो। ऐसा करने के कई फ़ायदे होते हैं। अव्वल तो यह कि जाति के आधार पर बाबू लोग काम जल्दी कर देते हैं दूसरे आपको चार लोगों के बीच ज़िल्लत का सामना नहीं करना पड़ता। उस वक़्त तो मैंने बात यूँ ही हवा में उड़ा दी थी क्योँकि इतनी वैचारिक समझ नहीं थी मुझमें पर आज सोचती हूँ कि अगर ऐसा करने लग जाऊँ तो दिनभर में कितनी बार अपनी तथाकथित सामाजिक पहचान बदलती फिरुंगी। मुआफ़ कीजिएगा आज भी बड़े बड़े पढ़ाका और बुद्धिजीवी जाति को ही सामाजिक पहचान मानते हैं। भगवान न करे अगर किसी विपरीत परिस्थिति में फँस जाऊँ तो मेरा स्त्री होना ही काफ़ी होगा। फिर सोचती हूँ कि जब सफ़र में निकल पड़े हैं तो पैरों के जख़्मी होने से कौन डरता है साला
अगर मैं प्रेम कविता लिखूँ तो वाह, बहुत ख़ूब, डीप फ़ीलिंग्स, कीप इट अप और अगर समाज की सच्चाई को आईना दिखाता कोई स्टेटस धीरे से चिपका दूँ तो लोगों को मानो साँप सूँघ जाता है। अपने हक़ की बात करूँ तो स्त्रीवादी लीक से हटकर कोई विधा अपनाऊँ तो सलाह मिलती है सँध्या यू नो राइटिंग सटायर इज अ टफ़ेस्ट जॉब स्पेशली फॉर गर्ल्स। ऐसा करो कुछ मसाला टाइप्स लिखो संडे मैग्ज़ीन के लिए। भईया काहे को मैं रेसेपीज़, लेटेस्ट फ़ैशन, ब्यूटी टिप्स, उनका सर्दियों में ख़याल रखने और ख़ुश रखने वाले दो कौड़ी के लेख लिखूँ।क्यों ना मैं ऐसे हर सुझाव को लात मार दूँ।ना मुझे किसी भी वाद में दिलचस्पी नहीं। ना स्त्रीवाद में ना पुरुषवाद में। मुझे मेरा मैं खोजने दो। मेरा मैं जीने दो।वक़्त ही तो लगेगा ना क्या हुआ ।कम से कम मँज़िल का रास्ता मेरी मेहनत और ख़ूबियों से होकर जायेगा ।
                                ,.....................................संध्या यादव  
हिज़्र का दर्द औ वस्ल की रात का ख़त्म ये रिवाज़ हो
अब इश्क़ में कुछ ऐसा कर जो नयी बात हो
-संध्या यादव
मैंने तुम्हें कभी कोई

प्रेम पत्र नहीं लिखा

ताकि तुम ठगे न जाओ

मेरी यादों से

तुम इसे मेरी

ढिठाई कह सकते हो

कि मैंने आज तक

कोई ऐसा सपना नहीं देखा

जिसमें मैंने मला हो वसंत का रंग

तुम्हारे चेहरे पर

हरी दूब पर टहले हों

एक दूजे का हाथ थामकर

कुछ दूर साथ चले हों

जीवन पथ पर

वचन लिए हों तारों से

अंजुरि भरकर

कोई तस्वीर बनाई हो मिलकर

कुछ लम्हें चुरायेंगे कैसे

सबसे नज़र बचाकर

मैंने ऐसा कोई सपना नहीं देखा

मैंने आजतक तुम्हें कोई

प्रेमपत्र नहीं लिखा

-संध्या यादव
दिल है पाजी बहुत उससे कम पे राज़ी नहीं
ज़िद है मेरी कि उसे दुआ में अपने लिए माँगूगा नहीं
-संध्या यादव
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जब मलयालम लेखिका आरके इंदिरा ने वात्स्यायन की पुस्तक कामसूत्र को चुनौती देते हुए उसे स्त्री विरोधी करार दिया तो हंगामा बरपना स्वाभाविक था। उसपर से सोने पे सुहागा यह कि उन्होंने ख़ुद महिलाओं के लिए जवाब में एक क़िताब लिखी है। इस विषय पर शोध के दौरान उन्हें कुंठित, सनकी तो कहा ही गया साथ साथ विचित्र किस्म के निवेदन भी किये गये। अब ज़रा आपका ध्यान अख़बारो में विषेश क़िस्म का स्थान पाने वाले और कमज़ोरी दूर कर पत्नी को ख़ुश रखने वाले विज्ञापनों की ओर इंगित कराना चाहती हूँ। अजंता एलोरा की गुफ़ाओं से लेकर इन विज्ञपनों और पीपल के पेड़ नीचे वाली असली दुक़ानें सब महिलाओं के शोषण और हिंसा को प्रेरित करती है। अरे आधी रात को जब आपका दुधमुँहा बच्चा बिस्तर गीला कर दे तो उसके पोतड़े बदलकर देखियेगा बीवी तब ख़ुश होगी, किसी रविवार उसके सोकर उठने से पहले एक कप चाय बनाकर बिस्तर पे दीजिए बीवी तब भी ख़ुश होगी या फ़िर उससे घर के खर्च के बजाय सीता या द्रौपदी के अलावा इंदिरा नूयी और सुनीता विलियम्स जैसी प्राणनाथ रखने वाली पत्नियों के बारे में चर्चा करते समय बीवी की आँखों में डबडबाती चमक देखियेगा बीवी तब भी ख़ुश होगी।

रात से एक और गुफ्तगू

कभी ध्यान से सुनो तो लगता है कि रात बस सिसकियाँ लेती हो और तेज़ आवाज़ में रो नहीं पाती जैसे डरती हो कि कहीं ज़िंदग़ी की नींद न खुल जाये। सुबकती, तकिये में मुँह दबाये लगातार रात आँसू बहाती है
.
.
किसी फुटपाथ पर


किसी झोपड़ी में


दुनिया के तमाम


राहत कैंपों में


बंद कमरों में


और नीली बत्ती वाले


इलाक़ों में


रात सिसकियाँ लेती है


-संध्या 

वक़्त को एक और रूप में महसूसते हुए

घड़ी को कलाई पर

बाँधकर 


सिर्फ़ वक़्त का पाबँद


हुआ जा सकता है


बाँधा नहीं जा सकता


जैसे बीता कल घँटे 


और मिनट की

सुईयों से नहीं सँभलता


आँखों पर कहीं भी


बेवक़्त छा जाता है


-संध्या यादव


कुछ दिन पहले देखा की एक दादा जी अपने डेढ़ साल के पोते को एकांत में एक नया खेल सिखा रहे थे और बेचारा बच्चा उसे खेल समझकर बड़ा खुश था. भगवान करे उसे बड़े होकर बचपन का ये खेल कभी याद न रहे.अब कुछ लोग कह सकते हैं कि मैं सिर्फ समाज कि नकारात्मकता ही देख पा रही हूँ बहुत कुछ सकारात्मक भी हो रहा है या फिर ये सब शेयर करके कम से कम अपना स्टैण्डर्ड तो न गिराओ .तो मेरा मानना यही है कि जब लोगों ओ ऐसी नंगई करते शर्म नहीं आती तो फिर मैं उसे संयत शब्दों में कहते हुए क्यों लजाऊँ. साले भाड़ में जाएँ तुम्हारे ऐसे संस्कार और भाड़ में जाये तुम्हारा ऐसा धर्म, जो तुम्हारा बुढ़ापा नहीं संभाल सकता हमारी जवानी ( सनद रहे कि जवानी सिर्फ जिस्म की नहीं होती) क्या संभालेगा. अध्यात्मिक होने से परहेज नहीं है मुझे...परहेज है मुझे तुम्हारे इस दोमुंहे और बजबजाते धर्म से..........................संध्या
आज हमारी सबसे अजीज़ दोस्त का जन्मदिन है.मैनें सिर्फ उसके पसंदीदा बिस्किट लिए हैं और उन मोहतरमा ने मुझे बतौर ट्रीट दो किताबें दिलवाई हैं. ये जिगरी वाले फ्रेंड्स ऐसे ही कमीने होते हैं.अगर कहूँ कि जहन्नुम जाने का मन है तो धक्का दे कर गिरा देंगे और पूछेंगे बता लेने कब आयें.. बाहर वेट कर रहे हैं हम सब. अभी तक नहीं जान पा रही हूँ कि बर्थडे इसका है या मेरा.. बर्थडे पार्टी की जगह मेरे लिए दर कमीने ब्यॉय फ्रैंड की प्लानिंग चल रही है.. बाकायदा रफ़ आईडिया भी तैयार हो चुका है. दरअसल बात ये है कि इसे मेरा सिंगलापा रास नहीं आ रहा है. पालने पोसने से लेकर बुढ़ापे तक पीछा नहीं छोड़ेंगे ये ......:) :)
ज़िल्द देखकर न लगाओ क़ीमतें मेरी
मुझमें क़िताबों सी ख़ुशबू है
-संध्या यादव



वसंत

अगर कहूँ कि एक

शाख़ का पत्ता हूँ

तो वसंत भाता नहीं

जाने कब पीला पड़कर

वेदना की खड़खड़ाहट के साथ

झड़ जाऊँ

पर ख़ुश हूँ कि नई कोंपल

कहीं फूटने को आतुर होगी

मेरे जाने के बाद

-संध्या यादव
बंजर ज़मीन में उम्मीदें खोदता है किसान
किसी ने खेतों में बोई हैं इमारतें ऊँची
-संध्या यादव



बंजर ज़मीन में उम्मीदें खोदता है किसान
किसी ने खेतों में बोई हैं इमारतें ऊँची
-संध्या यादव


 

ख़ुमारी

जाने कौन सी ख़ुमारी में

उसने क़ुबूल की थी 


धड़कनों की हड़ताल


जानते हुए कि


ये वापस कामपर नहीं आतीं


-संध्या यादव

कैलेंडर

कई बार कोशिश की है

हर बीते लम्हे को जीने की


कैलेंडर की तारीख़ें


जरूर आगे खिसकी हैं


पर वक़्त को पीछे 


नहीं ले जा सकी हूं


अपने साथ


-संध्या यादव
कहते हो, हवाओं में बू बहुत है
और जिये जाते हो अवैध साँसे लेकर


कैसे होती ख़बर बहारों के जाने की
मुझपे तारी था इस क़दर आना उनका


चल जी लेते हैं ज़िंदग़ी थोड़ी
मरने को बाक़ी है उम्र सारी


आँखें बन गई आईना जब से
नींद भटकती है बेचैन होकर

-संध्या यादव
 
 

प्रगाश की रौशनी

प्रगाश की रौशनी कुछ कँपाकँपाई और आख़िरकार बुझ गयी। दामिनी की इच्छाशक्ति से लगा था कि वो अपना कुछ हिस्सा हम सब में छोड़ गयी है। पर अफ़सोस उसके साथ साथ हमने अपने हौसलों के पँख भी ख़ुद ही कतर डाले हैं। दामिनी जख़्मी, बुरी तरह से नोचे गये पंखों के साथ भी उड़ने को आसमान में डटी हुई थी तो फिर हम कैसे धर्म की केंचुल चढ़ाये कठमुल्लों की गीदड़ भभकी से डर सकते हैं। आज ये गाने से मना कर रहे, हमारे कपड़ों की लम्बाई अपने फतवों से तय करते हैं, कल को साँस लेने से भी मना कर देंगे।ज़बानी मत भिड़ो इनसे, वो सब करो जिससे इनकी ......ती है।

सन्नाटे से गुफ्तगू

अच्छा

रात तो चिहुँक उठे थे


सन्नाटे के जैसे


और सुबह हुई जब


चटख हो धूप की तरह


-संध्या यादव


वेलेन्टाईन डे पर -2

जिस दिन कमा लिए थे

हमने एक दूजे के मन

वादा किया था नहीं करेंगे

कुछ वादे जैसा आपस में

-संध्या यादव

वर्जिनिटी

स्त्रियों के पास

वर्जिनिटी के अलावा भी 


बहुत कुछ होता है


मसलन...


प्रेम


दया


स्वतंत्रता


आकांक्षाएँ


सपने देखती आँखें


 कल्पनाशील मन


अपनी सोच और


विचार


इनकी भी तह में


झाँको कभी 


क्योंकि

शुचिता के पैमाने


ये भी हैं।

-संध्या यादव

वेलेन्टाईन डे पर 1

ये क्या

हमने तो तय

किया था

सीने से लगायेंगे

बादल हवाएँ

धूप चाँदनी

पुराने पीपल की छाँव

गली मुहल्ले की सड़कें

घर की देहरी

ख़ुशियाँ ग़म और

तुमसे जुड़ी हर चीज़

ताज्ज़ुब है कभी

कोई बात नहीं चली

एक दूसरे को गले

लगाने की

-संध्या यादव

 

रात का एक रूप

रेत की झिलमिल में

टिमटिमायेगा...

चाँद आज

-संध्या यादव



शहरों में सूरज

कचरे की पॉलीथीनों के संग

पेड़ पर लटकी पोटली

जिसमें बंद है

उनींदी घरवाली के चुंबन से

अलसाई रोटियाँ,

उजालों ने फ़िर से

रहज़नी की है

आसमान ताक़ते उस

देहाती के संग

मुर्गे की बांग सुनाई नहीं देगी

क्योंकि शहरों में सूरज

डूबता नहीं

वो तो पार्क हो जाता है

बड़ी इमारतों के बेसमेंट में

-संध्या

वेलेन्टाईन डे पर

देखो...

मैंने लगा रखा है

हर लम्हे का हिसाब

तुम्हारी हर चीज़

क़रीने से सजी रखी है

चीड़ की लकड़ी से बनी

उस अलमारी में

देखो...

अब भी नम होगा

उठा लेना चुँबन अपना

तह करके रखा था

वहीं कहीं

-संध्या


वेलेन्टाईन डे  पर 
प्रेम तक पहुँचने का रास्ता भले ही एक हो पर उससे बाहर निकलने के सभी रास्ते युक्तियाँ खुले छोड़ दो बिना किसी ताले के। उसके बाद भी जो बचा रह जाये वही सच्चा प्रेम है। इसे कुछ गिने चुने अर्थों तक सीमित रखने के बजाय इसका स्वरूप इतना विस्तृत कर दिया जाना चाहिए कि कटुता की गुजांइश न रहे। कम से कम वे युवा प्रेमी जोड़े जो इसे धर्म मानते हैं एक नयी परिभाषा गढ़ सकते है जो कड़कती ठंड में सड़क किनारे पड़ी निर्भया या दामिनी को अपने गर्म कोटों और शालों से ढँकने की हिम्मत जुटा सके।
-संध्या

प्रेम दिवस1

सुना है उस वाले टोले की भक्तिन आजी ने बाबा को प्रपोज़ किया है सबके सामने आई लभ यू बोलकर। और टोलेवालों ने तालियां बजाकर स्वागत किया है उनका. गज़ब की मिठास है हवाओं मे। जय हो प्रेम दिवस की:-)

तस्वीर

किसने कहा कि

याद आती है

तुमसे ज़्यादा बोलती है

तस्वीर तुम्हारी

-sandhya yadav
मुझे परखते हो ना

बात बात पर

तो सुनो

फ़ायदा उठाओगे मेरा

अगर जाते हो छोड़कर

दुनिया...

मुझसे पहले

-संध्या यादव


गुलाबी बादल

तुम्हें शिक़ायत थी

जो नहीं लिखा तुम्हें

प्रेमपत्र

लो भेज दिये हैं

कुछ गुलाबी बादल

और तैरते हुए शब्द

मत रखना छिपाकर इन्हें

तकिये के नीचे

बरस पड़ेंगे रातों को

-संध्या यादव

नींदें

कहते हो कि

मैंने क्या किया

आख़िरकार ले गये

फुसलाकर...

आँखों से नींदें भी

-sandhya yadav

प्रेम कविता

कोई तुकबंदी मत करना

भावनाओं का सरलीकरण भी नहीं

किसी श्रेणी में रखोगे

तो बात बिगड़ने का अंदेशा

उड़ेगा नहीं प्यार का रंग

अतः रंगहीन ही रखो

तो और भी अच्छा

बस बिखेरते जाओ
नियमहीन

कच्चे अनगढ़ शब्द

मेरी मानो

बन जायेगी प्रेम कविता

-संध्या यादव

वक़्त

शेल्फ़ में रखी

एक बहुत पुरानी

क़िताब...

हाथ लगाते ही जब

भरभराकर ढह गयी

आईने ने आँखों में आँखे डालकर

कहा...

कुछ इस तरह वक़्त

यादों में लग जाता है

दीमक की तरह?

-संध्या

बूँद

जैसे ही पहली बूँद ने

आसमान से इशारा किया

अब तक के सभी अनुभव

बटोरकर...

बहाने से कहा

आज बाहर काम बहुत है

-संध्या

यूँ तो

किसी लेन देन की

किसी लेन देन की

यूँ तो कोई बात

नहीं थी

बस दुःख तेरे

रंगदारी में माँगे थे

-संध्या यादव
 


बारिश

झमाझम बारिश में

खिड़की के पास खड़े होकर

जब भी कोई

धुंधला चेहरा बुनती हूँ
सामने आ जाते हैं

घोंसलों में दुबके

अपने डैनों में

बच्चों को छिपाये

पंछी...

पुआल की खरही में

दुबकी पगली

बिना दिहाड़ी किये

घर जल्दी लौटा

अँगनू...

और ढोर डंगर संग मड़ैया में

सोई भक्तिन आजी

-संध्या यादव

सपने

देखो धूप खिली है शायद
.
.
. डाल दो कुछ भीगे सपने
सूखने को

-संध्या यादव

मोनालिसा

पखवारे भर दिहाड़ी

और मुट्ठी भर पैसे लिए

सपने में इतराकर कहती है

'हमार छागल अऊर हँसुली'
.
.
.
.
गाँव की मोनालिसा

-संध्या यादव

पंख

सपनों को पंख लगाकर

भूल गया था
.
.
.
बुद्धू ब्रह्मा

कि जान डालते ही

ये उड़ जायेंगे

-संध्या यादव

आत्महत्या

जला दिये वो सभी साक्ष्य

जो दुनिया की ओर इशारा करते थे

उसकी नाराज़गी ख़ुद से थी

इसलिए छोड़े गये नोट में लिखा
.
.
.
अपनी मौत का ज़िम्मेदार ख़ुद हूँ

-संध्या यादव

 

फेसबुक

                                              ...फेसबुक वॉल प्रमाणन बोर्ड...

की ओर से दिनांक 18 फरवरी 2013 को sandhya yadav की वॉल को ए सर्टिफ़िकेट प्रदान किया गया। इस आधार पर आभासी दुनिया के कुछ विशिष्ट जन ही इसकी सामग्री के लिए अनुबँधित हैँ।

नोट-ए सर्टिफ़िकेट दिमाग़ी तौर पर वयस्क लोगों को इंगित करता है।

(बेरोज़गारी में कोई संस्था या बोर्ड से अच्छा बिजनेस भला कौन हो सकता है)

प्रेषक व प्रबँधक- संध्या यादव

रात

कुछ अनमोल  स्मृतियाँ

क़िताबें,

मोमबत्ती की रौशनी,

कुछ स्याही से रंगे

कुछ सादे पन्ने,

और  तस्वीरें

कैसे कह दूँ कि
.
.
.
रात अकेली गुज़री

-संध्या