बुधवार, 21 सितंबर 2011

कुछ छूट रहा है.....

स्वप्न मेरे कुछ शीशे जैसे 
पत्थर की आँखों ने देखे 
बसेरा नया बनाने की 
कोशिश में हूँ 
पर सृजन का कोई 
तिनका छूट रहा है  
तमाम रंगीनियाँ हैं दुनिया की 
पर तुम्हारे बिना नहीं 
नाव मेरी उस ठौर बंधी 
रेत का दरिया जहाँ 
तैर रहा है 
बांध दिए हैं  ढेरों 
गंडे-ताबीज़...
अपनी उम्मीदों को 
कभी तुम्हारी भीनी ख़ुशबू 
महका देगी मेरे
जीवन को
मैं दबे पांव उतर जाऊँगी
तुझमें ...
पर शायद पहला क़दम
सीढ़ी पर पड़ने से 
छूट रहा है 
कल ही  देखा था 
ख़ुद को आईने में 
मेरा ही अक्स मुझे 
संदेह भरी नज़रों से 
घूर रहा था 
लाख समझाने के प्रयत्न
किये उसको 
पर देखो ना
अब तो वो भी टूट रहा है 
घूंट लिए हैं आंसू मैंने 
गला दें मुझे भले 
भीतर ही भीतर 
पलकों पर एक क़तरा
अब भी झूल रहा  है 
मैनें भी उस इंतज़ार के पीछे 
अर्ध-विराम लगाकर 
छोड़ दिया है 
मन को बांध लिया है 
लगभग...
लेकिन कोई कोना 
अब भी छूट रहा  है 
इतना सब कुछ फिसल भी जाये 
हाथो से; आपत्ति नहीं 
पर मेरी कब्र के पत्थर पर 
श्रद्धांजलि का हस्ताक्षर 
तुम्हारा छूट रहा है                                   -संध्या

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

रिश्तों और देह की गणित से परे.....

बीज जो बोये थे
इस बार बरसात में
अंकुर उसमें से
फूटा है
इक पौधा हरसिंगार का
पारिजात के संग
अपने आँगन में
इस आशा में की
 ख़ुशबू के साथ तुम मुझमें समा जाओगे
घनी रातों में अक्सर
मेरी स्थूल काया
तुम्हारे पैरों को छूकर
वापस आ जाती है
और मुझमें समाकर
तुम्हारे स्पर्श का
एहसास दिलाती है
नहीं चढ़ाये बेलपत्र भी
शिव के मंदिर में
तुम्हारे नाम से 
अलग रख लिए हैं
जाने क्या सोचकर?
जलते दीपक
कुएं की जगत पर
रखे हैं
उम्मीदों का एक झुरमुट सा
मेरे संग आँख मिचौली
खेला करता है
नहीं छह कुछ पाने की
फिर भी एक द्वंद सा
अंतर्मन में बैठा है
तुमसे जुड़े प्रतिमानों की
एक बस्ती सी बसा ली है
अपने चरों तरफ
उसमें खोकर ...
तुम्हें हर रोज़
जी लिया करती हूँ
तवारीख हँसे मुझपर
इससे पहले ही
तिनका एक प्रेम का
उस अदृश्य बिंदु से
मांग लिया है
जो हर काल में
किसी एक को मिला हुआ है
ग्यारहवां बेटा तुझे
अपना बनाकर
उन तमाम  प्रेमग्रंथों को
जला दिया है
लो रिश्तों और देह की
गणित से परे
मैंने तुम्हें हर
लेन-देन  से
मुक्त किया  

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

तुमने कुछ भी तो नहीं कहा था .....

दिन भर तुमने कुछ नहीं कहा
पर पूरी रात सुना मैंने
सवाल जो नहीं पूछे
उनका भी जवाब दिया
और तुम्हारे  आस पास की
हर  चीज़ को महसूस किया
सुनी थी क्या तुमने भी
कुत्ते के भौंकने की आवाज़
तुम्हारी गली के
पेड़ पर बैठी कोयल
कूक रही थी 
बच्चे झगड़ रहे थे
और अचानक तभी....
मेरे  नथुनों ने सूंघ ली थी
तुम्हारे कमरे में
दूध के उबलने की महक
किसी ने कुण्डी खटखटायी
और तुमने आवाज़  लगायी थी
कौन...........
कविता  जो तुमने कही थी
उसके हर शब्द को 
जिया मैंने
कहा करते हो हमेशा
मैं टुकड़ों में बंटा हुआ हूँ
बहुतों में
मैंने बड़े जतन से
सहेज लिया है
हर उस टुकड़े को
इस उम्मीद के साथ
कभी हल कर पाऊँगी
इस पहेली को
ये सब मैंने सुना था
जबकि 
तुमने कुछ भी तो नहीं कहा था

शनिवार, 10 सितंबर 2011

तैयार कर रही हूँ.....

तैयार कर रही हूँ,
अपने ही हाथों से ख़ाका,
मंजिल पाने का,
और उसे खो देने का,
यकीन.....

हो सकता है मेरी,
इस कामयाबी पर,
वाह-वाह करे हर कोई,
 पर मैं कहीं कोने में,
सीचूंगी नमकीन पानी से,
उसके जाने के बाद, 
बंज़र पड़ी ख़ाली ज़मीन,

 नहीं उग सकेगा इस पर,
 नीम का कोई पेड़,
 और नहीं बना सकेगी, 
बुलबुल ....
घोंसला इसकी शाख़ पर,
मुंडेर सूनी रह जाएगी, 
जब कोयल अंडे,
कहीं और दे आयेगी,
गिलहरी भी तब, 
दोनों हाथों से खाने के,
करतब दिखा कर,
मुझे न बहला पायेगी,

दरवाज़े की कुण्डी,
बंद करुँगी और....
ख़ुद ही खोला करुँगी,
सबकुछ बदल कर भी, 
कुछ नहीं बदलेगा,
कामयाबी की मेज पर,
ख़ाली फ़्रेम देखा करुँगी,

तैयार कर रहीहूं,
अपने ही हाथों से खाका,
मंजिल पाने का,
और उसे खो देने का,
यकीन................