मेरे और तुम्हारे बीच
सारी दूरियां मिट चुकी हैं
बस बाकी हैं
मीलों के फासले
रेत के तपते रेगिस्तान
झूठे रिश्तों के कैक्टस
और शहर तथाकथित
इंसानों के
वास्ता कोई न रखोगे
जब तुम मुझसे
दर्द तुम्हारे ज़ख्मों के
रिसने लगेंगे
छत की सीलन की तरह
मेरी आँखों से
हर बार ....
वक़्त की रबर से
मिटाकर देखना
मेरी यादों की रंगत को
ये और गहरी होती जायेंगी
धुंए से लाल हो चुकी
दीवारों की तरह
हर बार
जिन पर नहीं चढ़ेगा
प्रेम का कोई और रंग
मेरे घर की गली के
जानिब
गुज़रोगे जितनी बार
जानते हुए कि क़दम
नहीं ठहरेंगे
फिर भी मैं दरवाज़े की
कुण्डी खोल दिया करुँगी
तुम्हारे लिए
हर बार...
चिट्ठियां भले तुम न लिखो
ख़ुशबू वाली गुलाबी
अपनी खैरियत की
लेटर बॉक्स में
पोस्ट कर दिया करुँगी
ख़ुद ही तुम्हारे नाम से
हर बार ....
रोक लो हवाओं को
अपने शहर की
जो लाती है महक
तुम्हारी सांसों की मुझ तक
मैं साँस ही नहीं लूंगी
और भेज दिया करुँगी
उन्हें वापस उल्टे पांव
हर बार ...
बांध दी है सदा के लिए
चाभी उस संदूक की
अपने पल्लू से
वक़्त जिसमें ठहरा हुआ है
अपने मिलन का
वादा है मेरा
तुम्हारी मर्ज़ी के बिना
नाहीं खोलूंगी उसे
बस छू लिया करुँगी
बाहर से ही
हर बार...
लो छोड़ दिए पैरहन
धानी रंग के
भाते नहीं मुझ पर
तुम्हारे बिना
तुम्हारी शर्ट का रंग
ओढ़ लिया करती हूँ
हर बार...
अपनी कविता की
नायिका को
दूर कर दो तुम चाहे
जितनी बार
दावा है ये मेरा
की मैं मिलूंगी तुम्हें
हर बार... -संध्या
बहुत सुन्दर.............संध्या.पहली बार ,तुम्हारे ब्लॉग पर आई...अच्छा लगा
जवाब देंहटाएं