गुरुवार, 29 नवंबर 2012

बचपन के दिन भुला न देना

      हम कितने भी बड़े क्यूँ न हों जायें, बचपन के दिन हमेशा हमारी यादों में जिंदा रहते हैं.वो दिन जब हम बेफिक्री से बेमतलब यहाँ वहां घुमते हुए बिता दिया करते थे. न घर की चिंता थी न बाहर की. हमारे खेल थे कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते थे. हर दिन हर मौसम में किसी वीडियों गेम की तजऱ् पर नए नए खेल ढूंढ लिया करते थे. फिर वो खेल एक गुट से दूसरे में और दूसरे गुट से टोले में और टोले से पूरे गाँव में चल पड़ता था. बड़े बुजुर्गों के लिए भले ही मौसम बदलते हों पर बच्चों के लिए तो मौसम खेल के हिसाब से बदला करते हैं..या यूं कह लीजिये की खेलों के ही मौसम हुआ करते हैं. वो पेड़ों पर चढऩा, कंचे खेलना, सिकड़ी, घर घर खेलना, गुड्डे- गुडिय़ों की झूठ मूठ की शादी रचाना, किरण पारी को बुलाना हो या हम सब में चोर कौन बनेगा ये डिसाइड करने के लिए कोई गीत गुनगुनाना हो जैसे- नीम्बू की प्लेट में चीनी का आचार था बुढिय़ा बीमार थी और बुड्ढा नाराज़ था. या फिर गोले में बैठकर घोड़ा जमाल खाए पीछे देखे मार खाए कहकर घूमना हो. कच्ची रेल की सडक़ बाबू धडक़ धडक़ सबसे प्रिय गीत हुआ करता था. चोरी करना बुरी बात है ये मम्मी पापा के अलावा ये गाना भी सिखाता था- पोशम पा भई पोशम पा सौ रुपये की घड़ी चुरायी अब तो झेल में जाना पड़ेगा जेल की रोटी खानी पड़ेगी. और हाँ साथ में बुरी आदतों से तौबा करने की हिदायत भी ये गाना देता था- सिगरेट पीना पाप है सिगरेट में तम्बाकू है और वही जेल का डाकू है. मां कितनी भी हिदायतें क्यूँ न दे पर कड़ी दोपहरी में बागों के लिए निकल पड़ते थे जैसे सूरज को चुनौती दे रहे हों और भला किसकी मजाल जो हमें बारिशों में नाव तैराने से रोक ले. ये वू दिन थे जब हर कांच का टुकड़ा हमें खेलने की चीज़ लगता था और रास्ते पर पड़े हर पत्थर को ठोकर मारने के लिए हमारे पांव ख़ुद -ब-ख़ुद उठ जाया करते थे. घर में लगा आईना किसी हमें हूबहू किसी दूसरे घर में पहुंचा दिया करता था. जिज्ञासाओं के ग़ुबार यहीं से शुरू होते थे. दीवाली के बचे हुए दीयों से तराजू बनाकर जिंदगी में  संतुलन बनाये रखना खेल खेल में सीख जाया करते थे.तितलियों के पीछे भागना हो या बादल में कोई नयी शक्ल देखना, चिडिय़ों के बच्चों के लिए पानी रखना, रेत के ढेर में पांव डालकर छोटा सा घरौंदा बनाना हो. बचपन के ये खेल कोई नहीं भूलता बस यादों के धुंधलके में जरा फ़ीके पड़ जाते हैं. पर आज भी जैसे ही हम किसी बच्चे को रंग बिरंगे गुब्बारों के लिए मचलता हुआ देखते है तो हम सब के भीतर का बच्चा मचलने लगता है. बदलते वक़्त के साथ ये सरे खेल कहीं गुम से हो गए हैं. आजकल के वीडियो गेम्स और और नयी नयी तकनीक से बने खिलौनों ने यक़ीनन बच्चों को आधुनिक और चतुर बनाया है पर उनका बचपना कहीं खो सा गया है. दिनभर सोफे पर बैठकर कंप्यूटर से चिपके रहना और वीडियो गेम्स खेलना आजकल के बच्चों का प्रिय शगल बन चुका है. मिट्टी की महक और लकड़ी के खिलौनों से ये दूर जा चुके हैं. पेड़ों से तोडक़र आम, इमली और जामुन खाने से ज्यादा स्वादिष्ट इन्हें पिज़्ज़ा और बर्गर लगते हैं. उन्हें दादी नानी की कहानियों से ज्यादा रुचिकर डोनाल्ड डक, टॉम एंड ज़ेरी और मिकी माउस लगते हैं. गिल्ली डंडे से कहीं ज्यादा उनके हाथ कम्पूटर के की -बोर्ड और माउस पर चलते हैं. प्रकृति से दूर हो चुके ये बच्चे तकनीकी भाषा ज्यादा समझने लगे हैं. शायद यही वजह है की भावनाओं का प्रतिशत उनके स्वभाव में कम पड़ता जा रहा है. भले ही खेल मन बहलाने का तरीका रहे हों मगर सच तो यह है की ये खेल बचपन से ही बच्चों में  संस्कारों और दुनियावी समझ की नींव अनजाने में ही रख देते थे.       







                                                                                                                                          - संध्या यादव

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