अपने ही हाथों से ख़ाका,
मंजिल पाने का,
और उसे खो देने का,
यकीन.....
हो सकता है मेरी,
इस कामयाबी पर,
वाह-वाह करे हर कोई,
पर मैं कहीं कोने में,
सीचूंगी नमकीन पानी से,
उसके जाने के बाद,
बंज़र पड़ी ख़ाली ज़मीन,
नहीं उग सकेगा इस पर,
नीम का कोई पेड़,
और नहीं बना सकेगी,
बुलबुल ....
घोंसला इसकी शाख़ पर,
मुंडेर सूनी रह जाएगी,
जब कोयल अंडे,
कहीं और दे आयेगी,
गिलहरी भी तब,
दोनों हाथों से खाने के,
करतब दिखा कर,
मुझे न बहला पायेगी,
दरवाज़े की कुण्डी,
बंद करुँगी और....
ख़ुद ही खोला करुँगी,
सबकुछ बदल कर भी,
कुछ नहीं बदलेगा,
कामयाबी की मेज पर,
ख़ाली फ़्रेम देखा करुँगी,
तैयार कर रहीहूं,
अपने ही हाथों से खाका,
मंजिल पाने का,
और उसे खो देने का,
यकीन................
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