हिचकियाँ
पता नहीं तुम याद कर रहे थे
या जब कर रहे थे भूलने की कोशिश
तब आई थी मुझे हिचकियाँ
कहावतें कहती हैं कि चुराकर खायी गयी
चीज़ से भी आती हैं हिचकियाँ
मैं स्वीकार करता हूँ
उन सब बातों का चुराना....
जो तुमसे चाहकर भी
कह नहीं सका कभी
घुट गयी थी मेरी सब हिचकियाँ
जबकि हिचकियों का विज्ञान
कुछ और ही कहता है
मेरी सांस में अटक गया था
जब तुम्हारी याद का एक निवाला
हिचकी तब भी आई थी
तुमने ध्यान नहीं दिया होगा
तुम्हारी आदत भी कहाँ है
सब कुछ ध्यान रखने की
गले लगना और गीला कंधा
तब बंध गयी थीं गला भर भरकर
हिचकियाँ..............
जिस दिन मैंने तुम्हारा एकलौता ख़त
नदी में में बहा दिया था
पत्थर बांधकर
शायद वो मेरी आख़िरी हिचकी थी
(मैं मर तो उसी दिन गया था......हिचकियाँ मेरे जिंदा होने का सुबूत थीं)
-संध्या
वाह
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