सोमवार, 12 अगस्त 2013

जीने मरने की कसमें

इस कड़ी में सबसे पहले संवाद मरा

फिर वो सब बातें

घर पहुँचने का लम्बा वाला रास्ता

चूड़ी के बदले लिया गया कड़ा मरा

दुपट्टे के छोर से उलझ गया वक़्त और

टांकने के बहाने लिया था जो

कुरते का बटन भी मर गया

दीवार परकैलेण्डर की पीठ का निशान

पुरानी तारीख़ पर लगा नया गोला

मनौती के पेड़ पर खुरचा

बिना हाशिये का नाम

चोरी से रखे गए सलामती के

व्रत-उपवास मरे

फिर एक दिन तुमने कहला भेजा

भिजवा दो मेरा वो एकलौता ख़त

जिसमें लिखा था छुपाकर

मेरे नाम का सिर्फ़ पहला अक्षर

अनचीन्हा सा डर रहा होगा

तभी तो तुमने बढ़ा दी थी

मेरे नाम के पीछे ई की स्त्रीसूचक मात्रा

इस तरह मेरा नाम भी

मरता रहा शनैः शनैः

मान्य सूरज जब ढूँढा गया

जब तुम्हारे निष्कलंक माथे का

इस कड़ी का अंतिम गवाह

चाँद भी मर गया
.............................................

(मरना इतना आसान कब था.....लो मैनें जातक कथाओं में ज़िंदा रखी है मरी हुई हर चीज़.......जिसे बच्चे सीखेंगे संस्कार की तरह)

---------------------संध्या

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