तुमने मान लिया था
अलग नही है हम
तभी एक दिन
ट्रुथ एंड डेयर के खेल में
हमने पहने एक दूसरे के मन
जब तुम तर्जनी मे पड़ा लोहे का छल्ला
घुमाते हुए लगाते थे हिसाब
पहली डेट से लेकर हर चीज़ का
और मैं मज़े से पढ़ा करती थी
दास कैपिटल.........
तुम ईद के चाँद में भी
देख लिया करते थे
मेरा पूरा चेहरा जाने कैसे
तारे कातती चरखे वाली बुढ़िया
मुँह चिढ़ाती
सबकी नज़रों से बचाकर तुम चाँद
नज़रभर के देखते
और ठीक उसी समय मैं चाँद बेचकर
परदेस चली जाया करती थी
आसमान कमाने....
अलग होना जुड़ने की पहली शर्त
तुम गवाह बनाते हवा, पानी,
बादल,इंतज़ार शाम,सहर
और घड़ी के पेंडुलम को
सकुचाकर इशारे से जताते कि बहुत
पक्की होती है काँच की फ़िरोज़ाबादी चूड़ियाँ
.और मैं रुखाई से थमाकर मुख़्तारनामा
याद दिलाती नाज़ुक बेड़ियां मुझे पसंद नही
प्रेम उभयनिष्ट था दोनों के बीच
तुम नाम पूछते तो
मेरा जवाब प्रेम
साथ चलते नदी के दो किनारे
बीच में बहता पानी प्रेम था
संतुलन साधे एक एक बूँद सहेजे
किनारे रूठ जाते
तुम पुल बुनते संवादों का
और मैं 'भाड में जाओ कहकर'
सो जाया करती तुम्हारा
चुराया हुआ कुरता पहनकर
....... ( जब तुम, तुम नहीं थे और मैं, मैं नहीं थी.....तब तुम मैं थी और मैं तुम)
- संध्या
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