सात सालों की जुदाई आसान नहीं थी. आखिर मैं भी अपने कई पतियों वाले देश में सबकी नजऱों से बचकर दरगाह के बहाने आ ही गया. यहाँ प्रेम की भाषा कोई नहीं समझता बस गोलियों और हाफिज़ की भाषा सभी पाठ्यक्रमों में अनिवार्य कर दी गयी है. मेरी हालत तुमसे बेहतर भला कौन समझ सकता है मैं बस दिखाने भर का पति रह गया हूँ असली पति तो सेना है जिसने मेरी सौतन बनकर जीना मुहाल कर दिया है. इधर हथियारों में काफी खर्चे बढ़ गए सुलह के बावजूद अमेरिका ने भत्ता देना बंद कर दिया है. सोचता हूँ मेरी चीनी और तुम्हारी चाय से कुछ दिन का गुज़ारा तो हो ही जायेगा. अमेरिका के सहयोग से हमारे हाफिज़ को इक्यावन करोड़ का इनाम हुआ है. यूं तो मेरे पचहत्तर प्रेमी हुए हैं पर चीन ने मुझे जो दिया और जो दे रहा है वो हर किसी से छुपा हुआ है. उसने हम दोनों के मिलन में बड़ी मदद की है. तुम्हारे साथ बंद कमरें का डिनर अपनी यादों में संजो के रखूँगा पर हमारा अकेलापन सीमा- रेखा, शांति और अमन को नहीं भाया वहां भी चले आये खलल डालने. मेरे अज़ीज़ तुम्हारी मजबूरियां भी मैं समझता हूँ इसलिए अपना समझकर तुमसे दर्द बाँटने चला आया. ख़ैर बाकी सब खैरियत है उम्मीद करता हूँ आप भी कभी खरियत से हो जाओगे.
-तुम्हारा जऱदारी
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