मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

हर लम्हा है ज़िन्दगी

आज सुबह उठी तो वही पुराना सूरज छत पर आ चुका था, अकड़ दिखाते हुए चाँद से जाने को कह रहा था। मनीप्लांट पर कोयल बेमन कूक रही थी और गौरैया भला क्यूँ आती आँगन में जब हमने जाल डाल रखा है उस पर। रोज की दौड़ भाग फिर से शुरू। मम्मी की नींद चाय की भाप में उबल चुकी थी और आटे की लोई के साथ उनकी जम्हाईयाँ मिल गयी थीं। अपनी उसी पुरानी सायकिल से ऑफिस के लिए निकल पड़ी। मेरी यात्रा के साथी रास्ते के मरियल कुत्ते रात की ड्यूटी पूरी करके आराम फरमा रहे थे, गायें चारा खाकर नेताओं की तरह बड़ी तन्मयता से जुगाली कर रही थी। मुझे उम्मीद थी कि पुरानी सायकिल से निकला संगीत कुछ नया जरूर जरूर देगा। सडक़ के दोनों ओर छोटे -छोटे बच्चे टाट की बोरी पर खीरे-ककड़ी की अपनी दुकानें सजाये थे। इन्हें देखकर अक्सर मन में खय़ाल आता है कि क्यूँ असल भारत के बच्चों को आईआईएम या विदेशी कॉलेजों से प्रबंधन की डिग्री की जरुरत नहीं होती। दरअसल एक वक़्त की रोटी और अभावों में जिंदगी जीने का हुनर ये बचपन से सीख जाते हैं अगर इन्हें मौका मिले तो धीरूभाई अम्बानी की फ़ौज खड़ी हो जाये।
 बंद रेलवे क्रॉसिंग अक्सर मेरे धैर्य का परीक्षण करती है। अगर गौर करें तो मिनी इण्डिया के दर्शन रेलवे फाटक के दोनों ओर खड़ी भीड़ में हो सकते हैं और आँखों के सामने से गुजऱती ट्रेन यक़ीनन आपको इनके्रडिबल इण्डिया का भान कराएगी जिसके हर डिब्बे में अलग तरह के लोगों का बसाव मिलेगा, ट्रेन की खिड़कियों से लटके दूध के कैन और खिड़कियों से लटके सफऱ करते लोग। इतना रोमांच तो एवरेस्ट की चढ़ाई में भी नहीं मिलेगा। बख्शी का तालाब से टैक्सी लेते समय एक नजऱ तालाब पर चली ही जाती है। गाँव के बूढ़े पीपल और घर के बुजुर्गों की तरह सबको पहचान देने वाला आज यह तालाब चुपचाप अकेले सिसकियाँ लेता है। टैक्सियों में बजने वाले गाने कई बार मुझे अजनबी भाषा के लगते हैं लेकिन संगीत की कोई अलग भाषा नहीं होती। सहित्य और सिनेमा किसी भी समाज और उसके देशकाल का आईना होते है।
साहित्य और सिनेमा ऐसी दो विधाएं हैं जिनके आधार पर किसी भी देश और समाज के विषय में जाना जा सकता है। दोनों ही उसके बौद्धिक विकास और रचनात्मकता का पैमाना होते है। जहाँ एक ओर फि़ल्में ओर साहित्य उस समाज को समझने का बेहतर उपाय हैं, वहीं दूसरी ओर किसी भी परिस्थति या मनोदशा को दर्शाते है।   रंग दे बसंती फिल्म के ‘थोड़ी सी धूल..’ गाने ने जेनरेशन नेक्स्ट के इस अनोखे देशप्रेम का सबको दीवाना बना दिया था। पीपली लाईव की ‘महंगाई डायन’ ने उसे संसद का सबसे लोकप्रिय विषय चर्चा के लिए बना दिया। महंगाई डायन हमेशा से ही समाज में थी लेकिन इतनंी लोकप्रिय पहले कभी नहीं हुयी थी। इन सब उदाहरणों के पीछे का आशय यह है कि हर फिल्म या गाना अपने समय के समाज, परिस्थितिकाल, और मनोदशा का पोषक होता है। फिर चाहे वो हिंदी सिनेमा हो या भोजपुरी या फिर तमिल।
सबके पीछे एक सन्देश या फिर यूँ कह लें कि पूरी कि पूरी विचारधारा छिपी हुयी होती है। इसका सबसे सटीक उदाहरण है टैक्सियों में बजने वाले गाने जो कॉलेज गोइंग्स में टेम्पो टाईप के नाम से मशहूर है। इसी तरह का एक टेम्पो टाईप है ‘अरे रे मेरी जान सवारी, तेरे कुर्बान सवारी..’ और आगे का पूरा गाना टैक्सी चालकों कि मनोदशा और उनसे कि जाने वाली पुलिसिया वसूली को बड़ी ही साफगोई और चालाकी से बयां कर जाता है। ये बताता है कि कैसे पुलिसिया वसूली की खीज वो सवारियों को भूसे के मानिंद ठूंस के निकालते है। भले ही इण्डिया में दोपहिया और चारपहिया वाहनों का बाज़ार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा हो लेकिन अब भी ये टैक्सियाँ ही कई शहरों में एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचने का एकमात्र जरिया लाखों लोगों के लिए है।  यानि कि अब हमें ये मान लेना चाहिए कि ये टेम्पो टाईप सिर्फ हास परिहास का विषय नहीं है बल्कि इनका भी अपना एक टाईप है. जो बहुत हौले से अपनी बात समाज के हर वर्ग तक पहुंचा रहा है। मजेदार बात यह है कि ये भी भारतीय संविधान का अपना तरीका  है जो सभी को अपनी बात कहने की आज़ादी अपने टाईप से देता है। ट्रकों पर लिखे संदेशों के बाद अब ये टेम्पो टाईप भी अपना टाईप बताते हुए ये सडक़ों पर दौड़ रहे है।
  टैक्सी के थोड़ा सा रुकते ही छोटे छोटे बच्चे अपने कटोरे में किसी एक देवता की तस्वीर लिए ‘भला होगा’ कहकर पैर पकड़ लेते हैं तो कभी जोड़ा बनाने लगते है। इन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप अकेले ही सफऱ कर रहे है।  दिन के साथ इनके कटोरे के देवता भी बदल जाते हैं और कभी कभी तो एक लोहे के टुकड़े भर से भी काम चल जाता है। तभी एक बच्चा ठन्डे पानी का पाउच हाथों में लिए टैक्सी में चढ़ता है। पूछने पर कि कौन सी क्लास में पढ़ते हो बिना देर किये जवाब देता है हम पढ़ते नहीं दीदी पानी बेंचते है। इसके आगे कुछ भी बोलने को बचा ही नहीं था मेरे पास। ये तो बस कुछ दूरी थी जिसने इतना कुछ सिखा दिया। ऐसे तमाम किस्से बिखरे पड़े हैं हमारे चारों ओर पानी बेचने वाले, सडक़ किनारे गृहस्थी जमाने वाले, सिर पर छ: ईंटें रखे और पीठ पर बच्चा बांधे काम करती बिलासपुरिया औरतें कभी महसूस कर के देखिये इनकी जि़न्दगी को, फिर जीवन दर्शन की खोज में किसी आध्यात्म नगरी नहीं जाना पड़ेगा।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें