बन के क्या हासिल उसे तुलसी किसी के आँगन की,
कैक्टस मरू के आशावान चाहिए,
पुलिंदा हूँ किसी की झूठी शान का,
तो मन पर मेरे पहरेदार चाहिए,
इल्ज़ाम लगाते हैं लोग मोहब्बत का,
तो दुनिया! मुझे इंसान चाहिए,
गूंजता है रह-रहकर शोर मेरे कानों में मकानों के टूटने का,
सुकून से भरा घर आलीशान चाहिए,
मानते हैं ज़श्न औरों की बर्बादी पर..ऊंची दीवारों के पीछे रहने वाले लोग,
ऐसी ख़ुशी से भली मौत ग़ुमनाम चाहिए,
छूटती हैं जडें पेड़ के ज़्यादा बढ़ने से,
तो क़िस्से बर्बादी के मेरी तमाम चाहिए,
क़ाफ़िर हूँ ग़र इस समाज की,
तो मुझे इससे बहिष्कार चाहिए,
नज़र का मेरी दायरा असीम है,
पूछे न मुझसे कोई 'क्या चाहिए'
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