नाराज़ होने का वक़्त ही कहाँ मिला?
गोया उम्र गुजर गयी उनको मनाने में
आँखों को सोये एक अरसा हुआ
ज़िम्मा पलकों का हुआ थपकियाँ दिलाने का
होंठ खुलते भी तो कैसे पत्थरों की इबादत को
हाथों को आदत हुयी जिंदा बस्तियां जलाने की
हार मान मैंने सफर में मगर शर्त है राही
कांटे पांव के न झुककर निकाले जायें -संध्या
गोया उम्र गुजर गयी उनको मनाने में
आँखों को सोये एक अरसा हुआ
ज़िम्मा पलकों का हुआ थपकियाँ दिलाने का
होंठ खुलते भी तो कैसे पत्थरों की इबादत को
हाथों को आदत हुयी जिंदा बस्तियां जलाने की
हार मान मैंने सफर में मगर शर्त है राही
कांटे पांव के न झुककर निकाले जायें -संध्या
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