नहीं चाहती जो सपने देखूं शीशे के
तो उन्हें न पत्थर की चोट मिले
राह कठिन है जीवन की माना ये
नहीं चाहती पदचिन्हों का साथ मिले
धरती सी उर्वर देह मेरी
नहीं चाहती तुम्हारे स्नेह का बीज मिले
नहीं चाहती प्रेम करूँ तो
मुझे न विरह की आग मिले
रूठे हो जो मुझसे तुम
नहीं चाहती मनुहार करूँ तो
मुझे न तुम्हारा इंकार मिले
दुःख की परछाई जब पीछे हो
शोक की घंटियाँ घंटियाँ बजती हों कानों में
नहीं चाहती शब्दों का अपनापा और
उम्मीदों का मुझे बोझ मिले
तन्हाई सच्ची साथी हो जाती है
नहीं चाहती तुम्हारे आलिंगन की ओट मिले -संध्या यादव
तो उन्हें न पत्थर की चोट मिले
राह कठिन है जीवन की माना ये
नहीं चाहती पदचिन्हों का साथ मिले
धरती सी उर्वर देह मेरी
नहीं चाहती तुम्हारे स्नेह का बीज मिले
नहीं चाहती प्रेम करूँ तो
मुझे न विरह की आग मिले
रूठे हो जो मुझसे तुम
नहीं चाहती मनुहार करूँ तो
मुझे न तुम्हारा इंकार मिले
दुःख की परछाई जब पीछे हो
शोक की घंटियाँ घंटियाँ बजती हों कानों में
नहीं चाहती शब्दों का अपनापा और
उम्मीदों का मुझे बोझ मिले
तन्हाई सच्ची साथी हो जाती है
नहीं चाहती तुम्हारे आलिंगन की ओट मिले -संध्या यादव
बहुत खूब संध्या जी।
जवाब देंहटाएंसादर
वाह ...बहुत बढि़या।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन शब्द समायोजन..... भावपूर्ण अभिवयक्ति....
जवाब देंहटाएंतन्हाई सच्ची साथी हो जाती है
जवाब देंहटाएंनहीं चाहती तुम्हारे आलिंगन की ओट मिले
बहुत खूब...सुंदर भावाभिव्यक्ति..
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंvery nyc...
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंआभार !!
संध्या जी,...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना,....सुंदर पोस्ट,..
मेरे पोस्ट 'शब्द'में आपका इंतजार है,....
बहुत सुन्दर रचना |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंसादर...
सुन्दर रचना ....
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिवयक्ति....
जवाब देंहटाएं