आज राह चलते अचानक फिर उसी बचपन से मुलाक़ात हो गयी है . पर जाने क्यूँ ये वैसा नहीं लग रहा है ? जिंदगी की भागमभाग में जब सड़क किनारे अपनी दुकान सजाये इस बचपन पर नज़र पड़ी तो खुद को रोक नहीं पाई . हर खबर से बेखबर इसने अपने चारों ओर एक अलग सी दुनिया बसा राखी है . जूते -चप्पलों घिरा ये बचपन जूते गांठने के साथ -साथ जिंदगी के झोल को भी सिलने की कोशिश में है . तो दूसरी ओर ग्राहकों के काम भी लगे हाथ निपटाता जाता है . उससे बातें करके महसूस हुआ कि , मनीष असल जिंदगी में भी मनीषी है ; परिस्थितियों का , गरीबी का और पेट का . जिंदगी इतनी बेरहम हुयी है कि रूखापन उसकी बातों में साफ़ झलकता है . लेकिन प्यार और सहानुभूति से बात करने पर सब कुछ बड़ी सहजता से बयां करता जाता है . पुरनियाँ रेलवे क्रोसिंग के पास रहने वाला मनीष बूट -पोलिश करता है . पिता की बीमारी ने उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया .चार भाई बहनों में सबसे बड़ा ; छोटा सा मनीष पूरे घर की जिम्मेवारी संभाले हुए है .डालीगंज स्थित राष्रीय बालश्रम विकास विद्या मंदिर में तीसरी क्लास में पढता है . उसका मन पढने में लगता है इसका सबूत वो झट से तीन और चार का पहाडा सुनाकर देता है . सुबह सात से दोपहर बारह बजे तक की स्कूली पढाई के बाद खुलती है मनीष की जिंदगी की किताब जो इतनी आसान नहीं . आगे यही काम करना चाहते हो या कुछ और ? मेरे इस सवाल पर वह बहुत साढ़े हुए दार्शनिक की तरह जवाब देता है कि -"बूट पोलिश भी काम है कोई चोरी नहीं . हम ऐसा पेट के लिए करते हैं ख़ुशी में नहीं . पढ़ -लिख कर बड़ा आदमी कौन नहीं बनना चाहता , लेकिन किस्मत जहाँ ले जाए .अभी से ,क्या बता दे ." न जाने किस अपनेपन से मनीष मुझे बताता है कि आज उसके छोटे भाई ने अपनी आँख -मुंह को feviquik से बुरी तरह चिपका लिया है और उसके बाबा उसे डाक्टर के पास लेकर गए हैं . इतना कहते - कहते वो लगभग रो पड़ता है . मेरे ये समझाने पर कि उसका भाई ठीक हो जायेगा वो खुश हो जाता है . जब मैं उसकी तारीफ करते हुए कहती हूँ कि मुझसे जूते इतने नहीं चमकते , तो नसीहत देते हुए कहता है कि इसमें जोर लगाना पड़ता है .
'बाकी पैसे बाद में ले लीजियेगा ' कहकर वो हक से मुस्कुरा देता है और फिर से अपने काम में लगन से जुट जाता है ,बिना इसकी परवाह किये कि कौन सा काम है .शायद उसे बचपन का साथी मिल गया है . ये सिर्फ एक मनीष की कहानी नहीं है . ऐसे लाखों मनीष हैं जिनके पास बचपन की यादों के नाम पर सिर्फ गरीबी , पेट की भूख ,जिंदगी की परेशानियाँ और कडवी यादें हैं . उनके पास न तो उस पहले स्कूल बैग और ड्रेस का उत्साह है , न त्योहारों की ख़ुशी और न ही बचपन की बेफिक्री भरी हंसी है . वहां से जाते समय मुझे किसी कवि की ये पंक्तियाँ याद आ रही थी -'राष्ट्रगान में बैठा भला वह कौन सा भाग्यविधाता है , फटा सुथन्ना पहिने जिसके गुण हरिच्रना गाता है '
acha writeup hai
जवाब देंहटाएंमनीष असल जिंदगी में भी मनीषी है ; परिस्थितियों का , गरीबी का और पेट का . जिंदगी इतनी बेरहम हुयी है कि रूखापन उसकी बातों में साफ़ झलकता है . लेकिन प्यार और सहानुभूति से बात करने पर सब कुछ बड़ी सहजता से बयां करता जाता है . पुरनियाँ रेलवे क्रोसिंग के पास रहने वाला मनीष बूट -पोलिश करता है . पिता की बीमारी ने उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया
जवाब देंहटाएंकिस्सागो वाली शैली में अच्छा फीचर है कुछ चित्र लगा के इसे और संवार दें तो पढ़ने का मज़ा दुगुना हो जाए बधाई
BHUT ACHA LIKHA HAI YAAR.
जवाब देंहटाएंसहजता से पिरोये हुए सहज शब्दों की श्रृंखलाओं से भावनाओं का सुंदर चित्रण !! मुकुलजी के शब्दों की प्रेरणा अवश्य आगे की रचनाओं में समाहित करे संध्या !! बधाई !!
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