शनिवार, 12 मार्च 2011


                                                         चवन्नी  तुम  बहुत  याद  आओगी 
आज  चवन्नी छाप  लेख  लिखने  का  मन  कर  रहा  है . जब  मैं  चवन्नी भर  की  थी , तो  पापा  से  बस  चवन्नी  माँगा   करती  थी ,न  इससे  कम - न  इससे  ज्यादा  पर   राज़ी  होती  थी . चवन्नी  की  कम्पट भी  मिल  जाया  करती  थी  और  चूरन  की  पुड़िया  भी . चवन्नी  न  मिले  तो  मज़ाल  थी  कि  स्कूल  चली  जाऊं  . जब  से  पता  चला  है  कि  सरकार  ने  चवन्नी  को  बाज़ार  से  वापस  ले  लिया  है , चवन्नी  पर  टिकी  मेरी  यादें  धुंधली पड़ने  लगी  हैं . इससे  पहले  कि  ये  पूरी  तरह  से  मिट  जाएँ ; सोचा  क्यों  न  इस  पर  कुछ  लिखकर  चवन्नी  के  इतिहास  का  हिस्सा  बन  जाया  जाये .
                                                                                                चवन्नी  तुम्हारे  जाने  पर  मुझे  बहुत  ज्यादा  हैरानी  नहीं  हुयी , तुम्हे  तो  एक  दिन  जाना  ही  था . जैसे दिल्ली  जैसे  शहरों  में  चवन्नी  की हैसियत  वाले  लोगों  की  कोई  जगह  नहीं . सरकारी  योजनाओं  में  इन्हें  चवन्नी भर की  जगह  भी  नहीं  मिलती . घोटाले  भी  हजारों -करोड़ों  में  हो  रहे  हैं . चवन्नी  के  घोटाले  कोई  करता  नहीं , इसलिए  लोगो  को  बड़ी  चीज़े  ही  याद  रह  गयीं . तुम्हारे  जाने  का  अगर  किसी  पर  असर  हुआ  है  तो  वो मंदिरों  के  सामने  बैठे  भिखारी हैं . चवन्नी  जब  तुम  थीं  तो  लोग  चवन्नी  इसी  लिए  रखा  करते  थे . दान - पुण्य  का  बहीखाता  भी  चालू  रहे  साथ  में  हर्र  लगे  न  फिटकरी  और  रंग  भी  चोखा  आता  था . संसद  में  नेता  जिस  चवन्नीपने पर  उतर  आते  हैं , उनके  लिए  आम  आदमी  से  जुड़ने  का  एक  जरिया  तुम  ही  तो  थी . तुम  अगर  सड़क  पर  पड़ी  हुयी  होगी  तो  तुम्हे  कोई  उठाएगा  भी  नहीं , जैसे  मथुरा - वृन्दावन  में  कमाऊ  बेटे, चवन्नी  की  गति  पा चुके  अपने  मां -बाप  को  नहीं  पूछते . अगर  बहू  दहेज़  में  चवन्नी  लाये  तो  उसका  क्या  होगा ? इसलिए  तुम्हारा  जाना  ठीक  भी  रहा . न  रहे  बांस ; और  न  बजे  बांसुरी . छोटी चीज़ों  की  समाज  में  कोई  इज्ज़त  नहीं . चाहे  फिर  वो  तुम  हो  या  आम  आदमी  . वो   इस  व्यवस्था  में  गाली  हैं . इसलिए तो तुम  भी  चवन्नी छाप  कहलाई . चवन्नी  कहीं  की .
                                                                                                     जो  कुछ  भी  हो  चवन्नी  जी , आपके  लिए  मेरे  मन  उतनी  ही  इज्ज़त  है . आखिर  आपके  दम  पर  ही  तो  मैं  दोस्तों  से  चवन्नी  की  शर्त  लगाया  करती  थी . स्कूल  के  रास्ते  में  पड़ने  वाले  मंदिर  में  चवन्नी  चढ़ाकर  ही  पिटने  से  बच  जाया  करती  थी  और  वापस  लौटने  पर  उठा  लिया  करती  थी . उपरवाले  को  गोली  टिकाना  की  हिम्मत  तुम्ही  ने  तो  दी  थी . लेकिन  इसका  दोषी  तुम  खुद  को  कतई  मत  मानना .वो  गलती  उस  उपरवाले  की  थी . उसे  अपनी  दुकान  में  'चढ़ा  हुआ  माल  वापस  नहीं  होता ' का  साईन-बोर्ड लगाना  चाहिए  था . सुना  है  कि तुम्हारी  बड़ी  बहन  अठन्नी  भी  जाने  वाली  हैं . मैंने  अभी  से  तुम्हे  और  तुम्हारी  बहन  को  संजो  कर  रखना  शुरू  कर  दिया  है . जब - जब  अपने  बचपन  को  याद  करूंगी - गाँव  की  चकरोट पर  गिल्ली -डंडा ,  छुप -छुप  के  नौटंकी  देखने जाना , चिड़ियों  के  पंख  इकट्ठे  करना , बाग से  अमरुद  की  चोरी  करना  और  फिर  पकडे  जाने  पर  मिली  पिटाई  के  साथ - साथ  चवन्नी  तुम  भी  बहुत  याद  आओगी .                       

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