गुरुवार, 7 जून 2012

तरक्की आखिर किस कीमत पर

                   

         पिछले कुछ दशकों में इंसान ने बहुत तेज़ी से तरक्की की है। ये तरक्की उसके रहन-सहन से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में परिलक्षित होती है। विज्ञान और तकनीक के दम पर मानव ने जीवन को आसान और बेहतर बनाया है। समाचार पत्रों में हर दिन ऐसी खबरें छपती हैं जो नयी तकनीक व अविष्कारों से सम्बंधित होती हैं और जीवन अधिक बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इन सबका एक अन्य पहलू यह भी है कि ऐसा कोई दिन खाली नहीं जाता जब हमें ये सुनने को न मिले कि आज फलां जगह किसी ने आत्महत्या कर ली, तो कोई रिश्तों कि परवाह किये बिना पैसों के लिए अपनों को ही मौत के घाट उतार देता है। पिछले कुछ दिनों में ऐसी ही खबरें सुनने को मिलीं जो समाचार पत्रों के लिए एक या दो कॉलम की सामान्य खबर की तरह ही रहीं पर यदि इन घटनाओं की तह में जाने की कोशिश करें तो पाएंगे कि हमारे सामाजिक मूल्यों और ढांचे में ऐसा बदलाव आ रहा है जो हमें कुंठा और हताशा के गहरे गर्त में धकेल रहा है। लखनऊ के गाजीपुर में 19 मई को 62 की उम्र में  निर्मल मुखर्जी ने फांसी लगा ली,कारण घर बनवाने के लिए बैंक से लिया गया कज़ऱ् नहीं चुका सके। इसी तरह एक युवक ने महज़ इस वजह से मौत को गले लगा लिया क्योंकि काम पर न जाने को लेकर उसकी मां ने डाँटा था। कानपुर में एक 25 वर्षीय युवक ने बेरोजगारी से तंग आकर खुद को गोली मार ली और आगरा में 6 माह की बच्ची के साथ हुई दुराचार की घटना ने तो इंसानी हैवानियत की सारी हदों को पार कर दिया। ये सभी घटनाएं समाज में अपनी जड़ें जमाती कुंठा का नतीजा हैं। मनुष्य अपनी सारी समस्याओं और दुश्वारियों का हल एकमात्र आत्महत्या में तलाशने लग गया है। प्रेम-संबंधों में असफलता हो या बेरोजगारी या फिर घरेलू-कलह इन सबका हल आत्महत्या द्वारा चाहते हैं। आज जब हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं, 2020 तक भारत विकसित राष्ट्र बनने का सपना संजोये हैं और रक्षा उपकरणों के विश्व में सबसे बड़े खरीदार होने के साथ-साथ एक के बाद एक मिसाइलों का परीक्षण कर दुनिया को अचंभित कर रहे हैं। जिस देश को विश्व गुरु माना जाता है और पश्चिमी देश भी उसके आध्यात्मिक ज्ञान का लोहा मानते हों, वहां के समाज में इस तरह का अवसाद पनप रहा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर किस तरक्की की ओर हम भाग रहे हैं? ऐसी उन्नति के क्या वाकई कोई मायने हैं जो मानसिक शांति न दे सके। यक़ीनन ओवन में  हमें खाना गर्म रखने की सुविधा विज्ञान ने दी लेकिन रात को चौके में बिठाकर मां के हाथों से रोटी खाने का सुख हमें दुनिया की कोई भी तकनीक नहीं दे सकती।रोबोट हमारे रोजमर्रा के सभी काम निपटा देगा पर रिश्तों की गर्माहट और सुरक्षा का भाव नहीं दे सकेगा। एक क्लिक पर हम दुनियाभर की खबर रखते हैं। एन्जिलिना जोली क्या खाती और क्या पहनती हैं ये तो हमें पता रहता है पर पड़ोस में कब कोई मर जाता है इसकी जानकारी हमें नहीं होती। फेसबुक पर हम वर्चुअल समाज के चौबीसों घंटे सक्रिय सदस्य हैं। शायद बेहद निजी पलों को छोडक़र हर पल की खबर स्टेटस अपडेट का हिस्सा है। वास्तविक समाज से कब कट गए इसकी भनक तक नहीं लगी। विज्ञान ने जहाँ जीवन को बेहतर बनाया है वहीं इसके दुष्प्रभाव भी कम नहीं हैं। भ्रूणहत्या, विनाशकारी हथियारों और नए-नए आधुनिक उपकरणों की चाहत में बढ़ता लालच अपराधों को बढ़ावा मिलता है। हमने विकास के पैमानों को पश्चिम की तजऱ् पर निर्धारित कर लिया है। इसे निर्धारित करने वाले पढ़े-लिखे लोग ये नहीं जानते कि ऑस्ट्रेलियाई किसान और भारतीय किसान को एक चश्मे से नहीं देखा जा सकता। जरुरी नहीं कि जो तकनीक वहां सफल हो यहाँ भी हो जाये। मानव सभ्यता के काले इतिहास में दर्ज हो चुके नागासाकी-हिरोशिमा की त्रासदी को कोई नहीं झुठला सकता और इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इंसान तरक्की की चाहत में किसी भी हद तक जा सकता है। ये सही है की वक़त के साथ बदलाव बेहद जरुरी हो जाते हैं लेकिन किसी भी तरह के बदलाव के लिए तैयार होने से पहले इस बात पर ज़रूर गौर किया जाये कि आखिर ये बदलाव हम किस कीमत पार चाहते हैं? क्या अन्नदाता तमाम एकड़ उपजाऊ जमीन की कीमत पर या उनकी आत्महत्या के बदले, केजीएमयू में पढऩे वाले उस होनहार छात्र की जान के बदले जो अंग्रेजी न आने पर हीनभावना का शिकार था, या उन तमाम दोषियों को बेगुनाह छोडक़र जिनकी मानसिक कुंठा की शिकार मासूम बच्चियां तक बनती हैं? ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके जवाब तरक्की की अंधाधुंध दौड़ में बहुत पीछे छूट गए हैं और हमारे तथाकथित सभ्य समाज को मुंह चिढ़ाते हैं।
                                                                 इन समस्यायों की वजह तलाशें तो कहा जाता है कि परिवार व्यक्ति की प्रथम पाठशाला होता है और  मां उसकी पहली शिक्षक। अफ़सोस की बात है कि इस पाठशाला पर टीवी संस्कृति हावी हो चुकी है। इस बुद्धू बक्से ने ड्राइंग रूम से ज्यादा हमारे संस्कारों में घुसपैठ की है,जिसके पारिवारिक सीरियल्स की कहानी प्रतिशोध, सास बहू के पारिवारिक झगड़ों और विवाहेतर संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती है। ऐसी कहानियों संस्कारों की उम्मीद करना बेवकूफी होगी। घर के बाद बच्चा स्कूल में जीवन के नए पाठ सीखने जाता है। नब्बे प्रतिशत गांवों में बसने वाले भारत के स्कूल खस्ताहाल हैं। बुनियादी सुविधाओं के साथ शिक्षक भी इन स्कूलों से नदारद मिलते हैं। इससे इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि हम शिक्षा के क्षेत्र में शून्य से भी कितने पीछे हैं। इन दो जगहों से अधकचरा ज्ञान लेकर जब बच्चे कॉलेज में पहुँचते हैं तो वहां भी उन्हें ठगा जाता है। एक सुसंस्कृत और सभ्य- समाज के लिए हमारे प्रयास कितने खोखले और कछुआ चाल से चल रहे हैं। इसका सुबूत देश में पनप रहे क्षेत्रवाद और नक्सलवाद जैसी समस्याओं से मिल जायेगा। इन सबसे ज्यादा जि़म्मेदारी हमारी खुद की बनती है। अगर हर नागरिक अपना काम ईमानदारी से करे तो आधी समस्याएं स्वत: हल हो जाएँगी।             
   

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