मंगलवार, 13 अगस्त 2013

मजदूर




पहली बार मेरी कविता को किसी पत्रिका में स्थान प्राप्त हुआ है ………लखनऊ से प्रकाशित पत्रिका "ग्राम्य सन्देश" में मेरी कविता मजदूर छपी है 




सपने अधूरे ही छोड़ 
दिए होंगे 
तुमने आँखों में
सुबह की रोज़ी-रोटी के 
जुगाड़ में 
घरबार छोड़कर 
परदेशी से बन गए हो 
अपने ही देश में 
चाँद सिक्कों की तलाश में 
घर से संदेशा आया है 
खाट लग गयी है 
बूढी माँ
और तुम्हारी लाडली 
छुटकी बीमार है 
पिछले बरस खेत जो 
गिरवी रखा था 
क़र्ज़ के लिए 
साहूकार रोज़ दरवाजे पर 
गालियाँ देकर जाता है 
अबके बारिश में 
ढह गया है 
घरवाली ने मना 
कर दिया है
लाल चूड़ियाँ लाने को
घर औरों के बनाते-बनाते 
तुम्हारी अपनी गृहस्थी 
सिमट गयी है 
जूट के बोरों में 
जो सज जाया करती है 
कहीं भी सड़क किनारे 
ईंट के चूल्हे पर 
भूख को संकते हो 
ज़िन्दगी के तवे पर 
फिर मांजते हुए उसे 
हाथ रंग जाते हैं 
अभावों की कालिख से 
अपनी हाड़-तोड़ मेहनत से 
खड़े कर देना तुम 
ऊंची इमारतें
जगमगाते आलिशान मॉल्स 
और संसद में बैठकर 
चंद लोग तय कर देंगे
तुम्हारे पसीने की कीमत 
महज़ बत्तीस रुपये 
किसी हादसे में 
सांसे रूठ गयीं अगर 
तो आवाज़ नहीं  उठा पाउँगा   
 मुआवज़े के लिए 
जो मिलेगा सिर्फ़ 
कागज़ों पर 
इतना मजबूर हूँ मैं 
क्योंकि...
मजदूर हूँ मैं                                          -संध्या

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही भावपूर्ण रचना | हर किसी सामान्य व्यक्ति को इसमें अपना चित्र दिखेगा | बहुत बहुत आभार ... सुंदर रचना

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