गुरुवार, 30 मई 2013

सच है कि रिश्ते कभी खेल नहीं होते.....इसीलिए कभी कोशिश नहीं की उन्हें बाँधने की.....मुट्ठी में बंद रखता तो पसीज उठती हथेली मेरी.....इसलिए उँगलियों की पोरों पर रखकर................ उड़ा दिया था उन्हें हौले से हवा में तैरने वाले बीज की तरह......जानते हुए कि अगर इनमें बीज जैसा कुछ बचा होगा तो सूंघेंगे बंज़र धरती में नमीं और दूंढ ही लेंगे अपने उगने की नयी जमीन.....
.......................संध्या (सत्य के नितांत अपने प्रयोगों से)

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