गुरुवार, 24 जनवरी 2013

नानी का गाँव अब भी वैसा है

सर्दियों में नानी बीमार पड़ीं तो उनके घर सालों बाद जाना हुआ। मन तो नहीं कर रहा था पर जब वहां ;पहुंची तो लगा जैसे वहां की हर चीज़ बाहें फैलाये मेरा स्वागत  कर रही थी। सचमुच नानी का गाँव अब भी वैसा है...........पूजाघर की वो कुंडी आवाज़ वैसे ही करती है..........डरा करते थे हम जिसको सुन कर .....बेरी (बेर का पेड़ ) वहीँ  पर लगा है......बस एक नयी बेल उसके सहारे चढ़ गयी है.........मेहंदी का पौधा भी द्वारे पर है .....और कुछ खाली शीशियाँ उसके  नीचे नयी पडी हैं........निकलना होता था जब तेज़ी से .......वो गलियारा भी वही है..............सीढ़ियों के पास वाला कमरा आज तक खाली  पड़ा है........जैसे वक़्त वहां तब से ठहरा हो......जब मौत ने मामा को हमसे छीना था..........किस्सा भी पुराना है ..........ऊंचाई पर खड़े उस खंडहर का.............नानी ने फिर वही कहानी सुनाई है ........मुझे सुलाने को..............कुछ साल पहले जहाँ से छूटी थी.......और हाँ छतें भी घर की दीवारों पर टिकी हुयी हैं....बस धन्नियों की जगह.......ईंट सीमेंट ने ले ली है.....बारिश में जिस आँगन की ............सोंधी मिटटी की महक आती थी......उसकी जगह अब फर्श पड़ गयी है....... सूरज रोज आकर हमें खाट पर जगाया करता था.......पर अब तो धूप भी छन कर आती है.....और बया अब छप्पर में अपने घोंसले भी नहीं बनती.......घर के पिछवाड़े लगा पकड़ का पेड़ तो है.......बस वो नीम कट गयी है.......जिसके नीचे बड़के मामा ने ..................मां से छुपाकर मिर्ची मुझे खिलाई थी........मेहंदी हाथों में रचाने की बात पर...........नानी पहले तो सकुचाई थीं.............फिर नाना को देखकर शरमायीं थी..... वक़्त के साथ सब बदला है......पर नानी के हाथों के .............अचार का स्वाद अब भी नहीं बदला.......यहाँ बिजली चंद रोज़ पहले ही आई है........पर चोरी भोले दिलों को इसने सिखाई है...............सजदे में झुकते एकसाथ सर ................तो मोरों का यूं  बोलना ............जैसे साथ दे रहे हों नमाज़ियों का...........सचमुच नानी का गाँव अब भी वैसा है......................................................संध्या यादव 
 

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