शनिवार, 12 जनवरी 2013

रजाइयों और बलोअरों से
गर्म कमरों में
बैठे जब हम
कॉफ़ी से भरे डिजायनर प्यालों में
शुगर का संतुलन की
चुस्कियां भरते हैं
ठीक उसी वक़्त
किसी रैन बसेरे के कम्बल में
ज़िन्दगी छोटी पड़ जाती है
फुटपाथ के चूल्हे पर
बिना अनाज के
चढ़ी पतीली ठण्ड से
अकड़ जाती है
जब रात सन्नाटे की चादर
बुनती है
गर्म लहू आवाजें करता है
कल ....
जिंदा रहने की चाहत में ..............................संध्या यादव

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