शनिवार, 24 नवंबर 2012

खेल खेलने के शौक थे मुझको
कभी गुड़ियों से
तो कभी तितलियों से
उड़ता पंछी देखकर
हो आती थी
नील गगन में
कंचे देखकर
चमक उठती थी आँखें
बारिश मेरी प्रिय थी
जब भीगते हुए

बादलों को खूब
चिढाती थी
पेड़ों की डालें
मेरा झूला थीं
जुगनुओं संग रोज रात
जलती बुझती थी
फिर एक दिन तुमने कहा
आओ चलो पतंग उड़ायें
मैंने ख़ुशी ख़ुशी
पतंग पर अपना नाम लिखा
और मांझा तुम्हारे
नाम का बाँध दिया
हम दोनों ने हाथ थामकर
खूब ऊँची पतंग उड़ाई
मैं ख़ुशी से चिल्लाई
बहुत दूर निकल आई हूँ
अब वापस चलते हैं
और तब तुमने
धरती से अपने मांझा
चुपके से काट दिया
मेरे नाम की कटी पतंग
कहीं दूर गिर गयी
-संध्या

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