सोमवार, 19 नवंबर 2012

अब्बा अपने सच कहा था कि अगर ज़िन्दगी के ज़ में नुक्ता न हो तो वो बेमतलब हो जाती है...



साल २०१० की गर्मियां, और उर्दू की कक्षा में मेरा पहला दिन. बस शौकिया तौर पर पहुंचा गयी थी उर्दू पढने लेकिन मेरे अध्यापक जिन्हें हम अब्बा कहते थे के व्यक्तित्व ने ऐसा प्रभावित किया की उर्दू से मेरा मोह बढ़ता गया. ये आपकी ही मेहनत का नतीजा था कि महज़ छह महीनों में पढ़ने के साथ साथ लिखना भी आ गया. कैसे भूल सकती हूँ कि मेरी उर्दू की लेखनी हुबहू किताबों की छपाई जैसी बनाने के लिए आपने कितने जतन किये थे. जब पांचों हिस्से पूरे कर लिए थे तो मैं थोड़ी लापरवाह हो गयी थी और आगे की किताबें लेने के लिए आप अपने  ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद ९० की उमर में खुद ही नदवा लाइब्रेरी चले आये थे. पिछले दो साल में सारे त्यौहार हम सबने  साथ मनाये चाहे वह दीवाली हो या होली, ईद हो या बकरीद. जब मैं पिछले साल बीमार पडी थी तो हॉस्पिटल में दुआ का ताबीज़ सबसे पहले आपने ही भेजा था. आज सुबह जब आपके इंतकाल की ख़बर सुनी तो आंसुओं को बहने से रोक नहीं पायी. आपके पार्थिव शरीर के सामने खड़े खड़े वो सारे दृश्य किसी फिल्म की तरह आँखों के सामने से गुज़र रहे थे. मेरे धर्म के बारे में जितना ज्ञान है वो सब आपकी ही बदौलत है. ज़िन्दगी के सफ़र के ऐसे कई तजुर्बे जाते जाते सिखा गए जो शायद ताउम्र न सीख पाते. अब आप नहीं होंगे पर आपका दिया हुआ ताबीज़ अब भी मेरी अलमारी में रखा है...................        

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