सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

नया लहू...

हम सपनों को खाते पीते
उमीदों के बिछौने लगाते हैं
आसमान को गले बांध
मौत से पेंच लड़ाते हैं
हम फक्कड़ से अपनी ही धुन में
मारे मारे फिरते हैं  
अरमानों के राजकुंवर  हम
रंक सरीखे दिखते हैं
जीवन की रस्सी पर
नटनी जैसे चलते हैं
जोश जहाँ पे हाथ बढ़ा दे
डेरे वहीं जमाते हैं
बेफिक्री से मुस्काते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

एक हाथ में चाँद लिए
सूरज को दिया दिखाते हैं
ग़ुरबत के अखाड़े में हम
बस जीत के मुक्के जड़ते हैं
ठोकर खाते हैं, गिरते हैं
गिरके फिर संभलते हैं
धूल झटककर नाकामी की
नए सिरे से उड़ान के अपनी
कलपुर्जे कसते हैं
माटी भी हैं, सोना भी हम   
जो ताप चढ़े से निखरता है
महक-लहक से जाते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

यारों के संग अड्डेबाजी
तीरथ यात्रा लगती है
कौर छीन कर खाएं जो
काशी-काबा लगते हैं
जान लड़ा दें उनकी ख़ातिर
ग़र खुशियों पे पंचायत लगे कहीं
अपने टोले की गलियां हमको
लन्दन पेरिस लगती हैं
तंग गली की वो खिड़की जब
इक लड़की के चेहरे सी खुलती है
पंख मेरे बन कोई संग- संग उड़ता है
वो आवारा सा लड़का तब
सबसे भलो लगता है
गुज़रे हुए ज़माने से हम
पंजे खूब लड़ाते हैं
सर्द हवा में गोते खाते हैं
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं

थाम मशालें चल दें तो
धरते हिचकोले खाती है
जुट जायें जो किसी चौक पे
सारथी क्रांति के बन जाते हैं
हमारी चंद लकीरों से
सिंहासन हिलने लगते हैं
अपने धरम के मुल्ला हैं हम
प्रेम का जनेऊ चढ़ाते हैं
वक़्त के साथ दौड़ने को हम
जमकर एड़ लगाते हैं
हंसी ख़ुशी अपने हिस्से का
देश उठाते है
जब ड्योढ़ी पे बैठे काका हमको
नए लहू का कहते हैं                                       -संध्या
 

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