शनिवार, 16 जून 2012

मेधावियों के सपने न चढ़ें राजनीती की बलि



प्राइमरी स्कूल की बदहाल  स्थिति- उत्तर प्रदेश मे प्राइमरी स्कूल के नाम पर जो तस्वीर हमारे ज़ेहन में उभरती है वो कोई बहुत अच्छी नहीं है।
सेन्सस 2०11 के आंकड़ों की माने तो इस समय प्रदेश में कुल १०7452 गांवों सहित 866361 प्राइमरी स्कूल हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के एक बयान के अनुसार प्रदेश लगभग पौने दो लाख शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है। अगर सिर्फ प्राइमरी स्कूलों का ये हाल है तो गांवों में पढने वाले ये नौनिहाल किसके भरोसे हैं और शिक्षा के नाम पर हम उन्हें आखिर क्या दे रहे है? इनमें से महज़ 59त्नमें बाउंडरी वाल है, 15त्न में बिजली की व्यवस्था है और भगवान् जाने कितने समय के लिए ये बिजली दर्शन देती होगी? जिन बच्चों को बारहवीं पास करने पर लैपटॉप के तकनीकी सपने (मुआफ कीजियेगा सपने कभी तकनीकी नहीं होते पर हमारी सरकारें पांच साल के गुणा-भाग के बाद ये तय करती हैं कि वोट पाने के लिए कौन सा झांसा काम करेगा) दिखाए जा रहे है उन स्कूलों में कुल 3.1त्न कंप्यूटर सेंटर हैं। इन स्कूलों की हालत ऐसी है जहाँ लड़कियों के लिए टॉयलेट तक की व्यवस्था नहीं है। गुरु जी अक्सर गप्पे लड़ते या जाड़ों में मास्टरनी जी स्वेटर बुनते हुए पत्रकारों के कैमरे में कैद हो जाती हैं। मिड डे मील जैसी परियोजनाएं भी यहाँ शिक्षा का स्तर नहीं सुधार पाई हैंैं। जो किताबें बच्चों के लिए भेजी जाती है कई बार कबाड़ में धूल फांकती नजऱ आती हैं। हम आज भी यह कहते नहीं अघाते कि भारत गांवों में बसता है। जब आधे से ज्यादा भारत गांवों में रहता है तो ज़ाहिर है कि लगभग इतने ही बच्चे जो आगे चलकर इण्डिया को शाईन करेंगे इन्हीं गाँवो के प्राइमरी स्कूलों से पढक़र निकलेंगे।
प्राईमरी स्कूलों ने दिए हैं समाज को आदर्श-इन  प्राइमरी स्कूलों में बच्चों को सीखने का प्राकृतिक व स्वाभाविक वातावरण मिलता है जो इनके अन्दर की प्रतिभा को उभारने में इनकी मदद करता है और इनके व्यक्तित्व का विकास किसी बहुमंजिला ईमारत की कक्षाओं में न होकर आस पास की चीज़ों से होता हो जो उसे समाज से मिलती हैं। अगर प्रशिक्षित व ईमानदार अध्यापकों  का साथ मिले तो हर बच्चे में कोई वैज्ञानिक छिपा मिल। दुनिया में सबसे ज्यादा इंजीनियर्स का उत्पादन करने के बाद भी आज हम क्यों छोटे -छोटे मशीनी पुर्जों के लिए जापान और चीन का मुंह ताकते है। दुनिया को जीरो देने वाला भारत आज अविष्कारों के मामले में जीरो है।  विदेशी नक़ल करते हुए हमने तमाम संस्थान खोल डाले पर किसी को भी उस स्तर तक नहीं पहुंचा सके जहाँ कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हुआ करते थे। जिन सरकारी स्कूलों को उपेक्षा की नजऱों से देखा जाता है। वर्तमान में जिनके बारे में ये मानकर चलते हैं कि यहाँ से पढ़ी आखें बड़े सपने नहीं देखती। लड़कियां बस मायके को पाती लिखने भर का और लडक़े रुपयों का हिसाब लगाने भर का ज्ञान हासिल कर सकते है उन्हीं सरकारी स्कूलों ने समाज को राह दिखने वाले आदर्श और देश का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तित्व दिए हैं। लाल बहादुर शास्त्री हों या कलाम साहब सभी सरकारी स्कूल से ही पढक़र विश्वपटल पर छा गए थे। ऐसे एक दो नहीं बहुत से नाम हैं। नयी शिक्षा प्रणाली बेशक देश को बेजान इमारतें गढऩे वाले  बड़े- बड़े इंजीनियर और नामी कंपनियों के प्रोडक्ट बेचने वाले सीओ तो दे सकती है पर समाज को राह दिखने वाले वे व्यक्तित्व नहीं दे सकती जो आने वाली पीढिय़ों के लिए आदर्श बन जायें। कई लोग ये तर्क भी दे सकते हैं कि आजका युवा ऐसे ही आदर्शों के पीछे भागता है पर कडवा सच यही है कि हम उनमें वो बीज ही नहीं बो पा रहे जो उन्हें समाज के प्रति जिम्मेदार बनाएं। 
भारत और इण्डिया तो नहीं बना रही ये शिक्षा प्रणाली-एक तरफ शहरी चमक-दमक में पली बढ़ी संतानें सर्व सुविधा संपन्न विद्यालयों में पढ़-बढ़ कर देश में एक विशिष्टï अभिजात्य वर्ग बनाती है, दूसरी ओर कई लाख बच्चे स्कूलों का मुंह तक नहीं देख पाते या फिर आठवीं के बाद घर का कमाऊ हाथ बन जाते हैं। तो कुछ के सपनों के आड़े छात्रवृत्ति आ जाती है। वे प्रतिभा होते हुए भी दूर खड़े होकर कोंवेन्ट स्कूलों में पढ़े बच्चों के लिए तालियाँ बजाते हैं।
अमीर और गरीब के बीच बढती खाई वाला हिसाब यहाँ भी फिट बैठता है। ये विडंबना है कि इन स्कूलों में ज़्यादातर बच्चे मेहनतकश और गरीब तबकों से आते हैं पर  समाज और वातावरण के प्रति उनके मन की जिज्ञासाओं को शांत करने वाले योग्य अध्यापक उन्हें नहीं मिल पाते।          भारत के हर नुक्कड़ पर आपको कोई छोटू बर्तन मांजता,जूते पोलिश करता, जून की खादी दोपहरी में पानी बेचता मिल जायेगा जो बस नाम का छोटू है। कहीं न कहीं ये साजिश लगती है जो देश को दो तरह के नागरिकों में बाँट देना चाहती है जिसके एक वर्ग को पढ़े लिखे अदृश्य गुलामों की जरुरत है जो टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलकर उन्हें चाय सर्व करे, सब्जी खरीद सके और दरबान बन सके। क्या इन स्कूलों में पढ़े बच्चे मंहगे स्कूलों में पढ़े बच्चों के आगे कहीं टिक पायेंगे। शिक्षा के नाम पर राजनीती कितनी सही- देश की राजनीती उस संक्रमण काल से गुजऱ रही है जहाँ देश,आदर्श और हितों से ऊपर राजनीती है। शिक्षा के नाम पर लापरवाही और इसका राजनीतिकरण सिर्फ समाज के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए भी घातक सिद्ध होगा।अगर यही चलताऊ रवैया रहा तो समाज काम या जाति के आधार पर नहीं बल्कि सरकारी और प्राइमरी या स्कूलों की हैसियत के हिसाब से बँट जायेगा और जो जैसे स्कूल में पढ़ा होगा उसे वही दजऱ्ा हासिल होगा। होना तो ये चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी सकारात्मक बदलाव के लिए राज्य की सरकारें सभी भेदभाव भुलाकर एक साथ काम करें और कम से कम इसे आरक्षण जैसे पैंतरों से मुक्त रखें। प्रतिभा चाहे जिस राज्य की हो, क्षेत्र या प्रदेश से हो सम्मान पूरे देश में मिले उसकी राह में भाषा या जाति संबंधी बाधाएं न आयें। राजनीति की बलि मेधावियों के सपने न चढ़ें।      
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