शनिवार, 21 अप्रैल 2012

शहीदों की चिताओं पर नहीं लगते हैं अब मेले..



 वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा...  अमर बलिदानी रामप्रसाद च्बिस्मिलज् की यह पंक्तियाँ हमारी स्वतंत्रता के राष्ट्रयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति  देने वाले लाखों अमर बलिदानियों की पूज्यनीय अभिलाषा की प्रतीक हैं लेकिन इन अमर शहीदों की इस अभिलाषा पर  श्रद्धासुमन अर्पित करने की बजाय हमने उन पर अंगारों को सजाया है.स्वतंत्रता की आधी सदी बीतने के साथ ही हमने उन शहीदों को भुलाने की कृतघ्नता का शर्मनाक परिचय दिया है जिनके रक्त में डूबे अथाह अतल बलिदानों के ऋण से यह देश अनंत काल तक मुक्त नहीं हो सकता । हमारी सरकारें और व्यवस्था हर चीज़ की कीमत देना जानती हैं चाहे आतंकी घटनाओं में मारे गए लोग हो या किसी रेल दुर्घटना के शिकार हुए लोग। राहत कार्य बाद में चलते हैं और मुआवज़े आगे। सरकार के इस रवैये का शिकार सिर्फ आम आदमी ही नहीं बल्कि आज़ादी की लडाई में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शहीद, स्वतंत्रता सेनानी और युद्ध में जान गंवाने वाले सेना के जवान भी हैं। भारत पाक युद्ध में दुश्मन के छक्के छुड़ाने वाले वीर अब्दुल हमीद हों या कारगिल में वीरगति पाने वाले कैप्टन मनोज पांडे इन्हें याद करना तो दूर शहीद दिवस पर इनकी प्रतिमाओं पर जमी धूल तक नहीं झाड़ी जाती।
                गत आठ अप्रैल को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आज़ादी का पहला बिगुल फूंकने वाले शहीद क्रांतिकारी मंगल पांडे की पुण्यतिथि थी और भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंका था। इसी दिन देश को राष्ट्रीय गीत च्वन्दे मातरमज् देने वाले बंकिमचंद चट्टोपाध्याय की सुध लेना भी भूल गए। व्यवस्था के चौथे स्तम्भ का ढोल पीटने वाला खुद मीडिया इस कतार में सबसे आगे खड़ा है। आईपीएल के चौके छक्कों, ऐश्वर्या की बेटी, बिग बी की बीमारी, और सनी लियोन की ख़बरों की चाशनी चाटने वाले मीडिया में भी इन सबको दो पंक्तियों की श्रद्धांजलि तक नहीं अर्पित की। ये मीडिया रसूखदारों के उठावनी सन्देश तो पैसे लेकर सेंटीमीटर्स में छाप सकता है पर शहीदों के लिए एक कॉलम की खबर लिखने में कांखने लगता है। कल तेरह अप्रैल को जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की 93वीं बरसी थी। इस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में सैकड़ों  निहत्थे लोगों पर ब्रिटिश शासन के अधिकारी आर ई एच डायर ने गोलियां चलाने का निर्देश दिया था जिसके फलस्वरूप लगभग चार सौ लोग मारे गए थे और बारह सौ से अधिक घायल हुए थे। क्रूरता की सभी हदें पार करते हुए इस अँगरेज़ अफसर ने बाग़ से निकलने के एकमात्र रास्ता भी बंद करवा दिए था जिससे कई लोग अपनी जान बचाने के लिए बाग़ में बने एक कुएं में कूद गए थे। हिंदी के एक दो समाचार पत्रों को छोडक़र अन्य किसी ने इसे खबर तो जाने दो गॉसिप के लायक भी नहीं समझा और अंग्रेजी के अखबार जऱदारी यात्रा, अन्ना हजारे,ओबामा मेनिया और विदेशी नीतियों के दिवास्वप्न में खोये रहे हैं। आखिर ये किस जिम्मेवारी के वहन का दावा ठोंकते रहते हैं? सच पूछिए तो गलती हमारी भी है हम राखी सावंत और ब्रिटनी के बारे में तो पल पल की खबर रखते हैं पर शहीदों के नाम पर बगलें झाँकने लग जाते हैं।  राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी ठेकेदार पार्टी अपने नए अध्यक्ष की ताजपोशी पर बधाई गीत गाने में व्यस्त थी।सत्तारूढ़ समाजवादी खेमा एक मौलाना की क्रोधाग्नि शांत करने के लिए उसके दामाद के राजनीतिक महिमामंडन में मिली सफलता पर मुग्ध था।देश को आजाद करने का दावा करने वाली देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी उत्तर प्रदेश चुनावों में मिली माट पर दिल्ली में मातम मना रही थी। राजनीती की मंदी में अपनी फुटकर दुकानें संजोये बैठे छुटभैये राजनीतिक गिरोह सत्तासुख की बन्दरबाँट से खुद के बहार के ग़म में डूबे रहे। किसी को भी इनकी याद नहीं आई।
                                                   हम बस घरों में बैठकर भ्रष्टाचार का राग अलाप सकते हैं, बहुत हुआ तो किसी रामलीला मैदान में जाकर पिकनिक मना आयेंगे इससे ज्यादा हमारे बस का है भी नहीं। वीर हमीद की विधवा पेंशन के लिए सालों भटकती रहीं, मनोज पांडे के माता- पिता के पास अपने जिगर के टुकड़े की यादों के सिवा कुछ भी नहीं है। अभी पिछले साल का ही वाकय़ा है जब वीरता के तमगों को भूतपूर्व सैनिकों और शहीदों के परिजनों ने राष्ट्रपति को ये कहकर लौटा दिया कि इन्हें गिरवी रखकर सरकार पेंशन की व्यवस्था कर दे। किसी देश के लिए इससे ज्यादा शर्मनाक बात भला और क्या हो सकती है? वो तो भला हो आमिर खान का जो रंग दे बसन्ती जैसी फिल्में बनाकर हमें कुछ याद दिला देते हैं। वरना हमारे पास उनके बलिदान के बदले बसों और ट्रेनों में आरक्षित कुछ सीटों औरएकाध चौराहों के नाम के सिवा कुछ भी नहीं है।

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