शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

वो अकेला नहीं जो रूठा था ज़िन्दगी से 
फिर हड़ताल धडकनों की वक़्त पर है और मुफ़ीद भी 


तमाम उम्र सीधी राह चलने का सिला कुछ तो नहीं 
जब तिकड़मी बना तो शोहरत मिली और साथ उसका भी 


ढूंढ रहा था रेत में अजनबी क़दमों के निशां कब से 
जब थक कर गिरा तो पास दरिया था और समंदर भी 


कैफ़ियत तय हो गयी जब से इश्क की बाज़ार में 
दर्द जो उठा है सीने में अलग है और अजीब भी 


ज़ख्म मेरे जब रिसने लगे नज़्म बनकर 
दुनिया ने कहा वो बावला है और रक़ीब भी 


तलवारें खिंच गयी जिस फ़कीर की मय्यत  पर 
वो हिन्दू भी था और मुसलमां भी  


किसी की यादों को शिद्दत से प्यार करना 
ये हुनर है की वो भीड़ में है और तन्हा भी                                                        -संध्या 

2 टिप्‍पणियां:

  1. ढूंढ रहा था रेत में अजनबी क़दमों के निशां कब से
    जब थक कर गिरा तो पास दरिया था और समंदर भी

    बहुत खूब संध्या जी।

    सादर

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  2. किसी की यादों को शिद्दत से प्यार करना
    ये हुनर है की वो भीड़ में है और तन्हा भी
    वाह ...बहुत खूब कहा है आपने ।

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