सोमवार, 28 नवंबर 2011

आंख खोली नहीं फरेब पर उसके इस क़दर यकीन था 
मर गया भीड़ में वो शख्स जो दिल से हसीन था
मिलना हुआ नहीं कभी ये वक़्त की चाल थी   
अमीरों की बस्ती में चुना जिसे मौत ने एक गरीब था 
फूल भी खिलने लगे मिजाज़ मौसमों का देखकर 
ज़ख्मों में धंसे खंज़र पर निशान मिले उसके जो करीब था
नफरत मिली हमेशा ये काटों का नसीब है 
जाने क्या बात थी एक मुझे छोड़कर वो सारी दुनिया को अज़ीज़ था   
सजाए मौत मिली फिर से परिंदों को  इश्क की कचहरी में 
फैसला सुनाया उसी ने जो बयां से मुकर हुआ गवाह था                                              -संध्या 

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