शनिवार, 27 अगस्त 2011

ज़श्न-ए-आज़ादी

 कल फिर से जश्न -ए- आज़ादी का बिगुल बजा देना, 
मिट गये जो ख़ाक- ए- वतन की ख़ातिर, 
दो पल के लिए उन्हेँ भी जिया देना, 
चमचमाती कारोँ से उतरेँगे जब फहराने को तिरंगा,
 रघुवीर के हरिचरना तुम जन गण मन गा देना, 
चौसठवेँ वसंत की जैसे हो जाये आज़ादी जवानी तेरी,
 ढाबे पर बैठे छोटू तुम भी ताली बजा देना, 
कल फिर से ज़श्न-ए-आज़ादी का बिगुल बजा देना।
 राखी बीत गयी यूँ ही बहना की,
 शहादत पर भैया की मुआवज़े का ढोँग रचा देना,
सूख गया है पानी भी सरस्वती सरीख़ा ..बूढ़ी माँ की आँखोँ का, 
जन्मदिन हो जिस दिन सपूत का उसके,
 देहरी पर तिरंगे मेँ लिपटा वीर दिखा देना,
 इंतज़ार करती हैँ अब भी चेहरे की झुर्रियाँ बूढ़े बाप की,
 लापता का ढाँढस उसे बँधा देना,
, जिनको सुध नहीँ है देश की, 
उनसे भी भारत माता बोलवा देना, 
हिचकी थी जिनकी थी सरहद पर 'वन्दे मातरम्',
 सिरहाने उनके मुट्ठीभर धूल वतन की रख देना,
 सूटकेस मेँ कुछ मफलर दस्ताने और कपड़े पुराने रखे हैं, 
और वो ख़त भी जिसमेँ हाल-ए-दिल तुमने लिखा था,
 छूकर इन सबको खो जाती है तुझमेँ..
जब से साहिब उसके हैँ रूठे,
 क्या हुआ जो ना रोएगी बीवी उसकी वचन मेँ बँधकर,
 अग्नि उसकी चिता की मासूम बेटे के दिल मेँ जला देना,
 कारखानोँ लगाने को पैसा बहता है पानी की तरह,
 बस शहीद स्मारक के लिए चंदा जुटा देना, 
अलख़ जलती दिखे शहीदोँ की मज़ारोँ पर, 
मित्रोँ! कल बत्तियाँ अपने घरोँ की बुझा देना, 
कल फिर से ज़श्न-ए-आज़ादी का बिगुल बजा देना। 

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