रविवार, 15 मई 2011

                                                              टेम्पो टाइप ............
साहित्य और सिनेमा ऐसी दो विधाएं हैं जिनके आदर पर किसी भी देश और समाज के विषय में जाना जा सकता है. दोनों ही उसके बौधिक विकास और रचनात्मकता का पैमाना होते है. जहाँ  एक ओर फ़िल्में ओर साहित्य उस समाज को समझने का बेहतर उपाय हैं, वहीँ दूसरी ओर किसी भी परिस्थति या मनोदशा को दर्शाते हैं. जैसे 'दिल है छोटा सा छोटी सी आशा..' भविष्य के सपनो की, 'अज मैं ऊपर असमान नीचे..' उन सपनों को पा लेने की, तो 'सारे सपने कहीं खो गए..' सपनों के टूटने की कहानी कहते हैं. बस चंद शब्दों का हेर-फेर पूरे मायने बदल कर रख देता है. इसी तरह रंग दे बसंती फिल्म के 'थोड़ी सी धुल..' गाने ने जेनरेशन नेक्स्ट के इस अनोखे देशप्रेम का सबको दीवाना बना दिया था. पीपली लाईव की 'महंगाई डायन' ने उसे ससाद का सबसे लोकप्रिय विषय चर्चा के लिए बना दिया. महंगाई डायन हमेशा से ही समाज में थी लेकिन इतनी लोकप्रिय पहले कभी नहीं हुयी थी. इसी तरह चाहे वो 'मुन्नी बदनाम हुयी हो' या फिर सड़क नियमो की गुनगुनायी जा सकने वाली पाठशाला 'इब्ने बतूता गले में जूता..' हो. इन सब उदाहरणों के पीछे का आशय यह है की हर फिल्म या गाना अपने समय के समाज, परिस्थितिकाल, और मनोदशा का पोषक होता है. फिर चाहे वो हिंदी सिनेमा हो या भोजपुरी या फिर तमिल. सबके पीछे एक सन्देश या फिर यूँ कह लें कि पूरी कि पूरी विचारधारा छिपी हुयी होती है. इसका सबसे सटीक उदाहरण है टैक्सियों में बजने वाले गाने जो कॉलेज गोइंग्स में टेम्पो टाईप के नाम से मशहूर है.इसी तरह का एक टेम्पो टाईप है 'अरे रे मेरी जान सवारी, तेरे कुर्बान सवारी..' और आगे का पूरा गाना टैक्सी चालकों कि मनोदशा और उनसे कि जाने वाली पुलिसिया वसूली को बड़ी ही साफगोई और चालाकी से बयां कर जाता है. ये बताता है कि कैसे पुलिसिया वसूली कि खीज वो सवारियों को भूसे के मानिंद ठूंस के निकालते हैं.
                                                                                        भले ही इण्डिया में दोपहिया और चारपहिया वाहनों का बाज़ार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा हो लेकिन अब भी ये टैक्सियाँ ही कई शहरों में एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचने का एकमात्र जरिया लाखों लोगों के लिए हैं. टैक्सी और इनमे सवारी करने वाले लोगों कि एक दुसरे पर निर्भरता 'मीटर जाम' आन्दोलन से पता चली.  यानि कि अब हमें ये मान लेना चाहिए कि ये टेम्पो टाईप' सिर्फ हास परिहास का विषय नहीं है बल्कि इनका भी अपना एक टाईप है. एक ऐसा टाईप जो बहुत हौले से अपनी बात समाज के हर वर्ग तक पहुंचा रहा है. मजेदार बात यह है कि ये भी भारतीय संविधान का अपना टाईप हैऊ जो सभी को अपनी बात कहने कि आज़ादी अपने टाईप से देता है.ट्रकों पर लिखे संदेशों के बाद अब ये टेम्पो टाईप भी अपना टाईप बताते हुए ये सडको पर दौड़ रहे हैं . ट्रको पर लिखे कुछ सन्देश जो मैंने पढ़े.............
                     इराक का पानी थोड़ा कम पियो मेरी रानी,मुकद्दर किसी कि जागीर नहीं होती, कीचड में पांव डाला है तो धना पड़ेगा ड्राईवर से शादी कि है तो रोना पड़ेगा,मालिक का पैसा मजदूर का पसीना सड़क पे चलती है बन के हसीना, न किसी की बुरी नज़र न किसी का मुंह काला होगा वाही जो चाहे ऊपरवाला.   

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