रंग डारूं मैं अरब के लालन पर.....
त्यौहार हम भारतीयों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं .ये त्यौहार हमें हमारी संस्कृति व परम्पराओं को जानने का मौका तो देते ही हैं साथ -साथ उनमे वक़्त के साथ किन बदलाओं की ज़रुरत है ये सोचने का मौका भी देते हैं. कितनी अजीब बात है न कि अधिकतर त्योहारों को मनाये जाने कि वज़ह ये है कि उस दिन किसी को किसी ने मारा था . जैसे दशहरा हम इसलिए मानते हैं क्योंकि राम ने रावन को मारा, होली इसलिए कि होलिका धोखे ही सही आग में जलकर मरी और प्रहलाद बच गए. इसी दिन विष्णु ने नरसिंह का अवतार ले हिरण्यकश्यप को मारा. जैसे इस समय गद्दाफी पर हमले हो रहे हैं. जब बात त्योहारों कि हो रही है और रंगों का ज़िक्र न हो ऐसा हो नहीं सकता. रंगों को गिनती में समेटा नहीं जा सकता. जितनी आँखें उतने रंग. हर नज़रिए का अलग रंग होता है. इन्द्रधनुष के सात रंग हैं ,तो तिरंगे के तीन रंग ही हमें देशप्रेम के रंग में रंगने के लिए काफी हैं. प्रकृति के बेहिसाब रंग दुनिया की तस्वीर पर बिखरे पड़े हैं. ये कभी खुशियों के रंगों का अहसास कराती है, तो कभी जापान की तबाही जैसे रंग बार- बार हम इंसानों की करतूतों पर नए सिरे से सोचने को मजबूर करते हैं. अगर विकिलीक्स के समाजवादी रंग पूरी दुनिया के दबंगों को लाइन से लगाये हैं तो दूसरी ओर राजनीती के रंग किसी भी अच्छे- भले देश को बेड़ा गर्क करने के लिए काफी हैं. ये तो रही रंगों की बात. अब तक मैंने अपने जीवन की बीस होलियाँ देखी हैं . लगभग आठ -दस पूरी मस्ती के रंग में मनाई भी हैं. कुछ सालों से न तो रंग खेला और न ही वो होलीपना देखने को मिला था. लेकिन इस बार दुनिया के रंग ऐसे हैं कि मेरा भी रंग डालने का मन हो गया. इसी बहाने होली भी दिवाली की तरह इंटरनॅशनल हो जाएगी. होली का सबसे पहला रंग मैं अरब की जनता पर डालूंगी, उनका हौसलाफजाई करने के लिए .लोकतंत्र का ऐसा गुलाल पहले तो कभी न उड़ा था इधर. फिर बारी आएगी गद्दाफी साहब की जिन पर शांति और अहिसा का रंग डाला जायेगा जो यकीनन उन्हें मुक्ति-मार्ग का रास्ता दिखायेगा . लेकिन कुछ लोग इतने चिकने घड़े होते हैं जिन पर कोई रंग चढ़ने का नाम ही नहीं लेता. एक मुखौटे को बेरंग करो तो दूसरा चढ़ा लेते हैं. इसीलिये समानता और मानवता का रंग की उसे बहुत ज़रुरत हैं. वो दादा बना फिरता है. उसके लोग स्पेशल हैं.दुनिया के सैकड़ों इंसान उसके एक नागरिक के बराबर हैं. कही कोई आफत आये तो सबसे पहले अपने लोगो को बाहर निकलेगा. तमाशा तो बाद में शुरु होता है.अब तक तो आप जान ही गए होंगे की मैं किसकी बात कर रही हूँ? अरे वही अफगानिस्तान वाला ,जो इराक में अभी तक फंसा पड़ा है. पकिस्तान का लंगोटिया यार. ये तो कहो मिस्र और बाकी देशो में लोकतंत्र की ऐसी बयार चली है की अमेरिका के खुद के पांव उखड़ने लगे. अब उसे कौन समझाए की 'बोया पेड़ खजूर का तो आम कहाँ से होय'.इसीलिए इस पर तो वीकीलीक्स मार्का रंग डालना पड़ेगा. ये तो कहो हमारे त्यौहार ऐसे हैं जो दुनिया के इतने रंग हम देख रहे हैं. तो फिर लग जाईये रंगों को समझने में क्योंकि आने वाले समय के रंग बड़े बड़ों -बड़ों को रंग डालेंगे.
vry nice thoughts....i wish u can implement dat asap...amen
जवाब देंहटाएंBHUT ACHA LIKHA HAI.
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