जी लूंगी अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी
आज फिर से,
निकलेगी कोई कविता फिर मन की कलम से
होती हूँ अपने करीब जिस पल, सबसे ज्यादा
साथ उसका लायी है,
क्योंकि साँझ होने को आई है.
लौटते हैं जैसे पंछी अपने बसेरे को
लौटूंगी मैं भी अपनी दुनिया में
दे के दाना पानी अपनी सोच को
पौध नयी लगायी है
क्योंकि साँझ होने को आई है.
पहुँच गयी किस मयार तक
इन दो शामों के बीच ,
खोने पाने का क्या हिसाब करूँ?
ये खुद की खुद से लडाई है,
क्योंकि साँझ होने को आई है.
न समझो मुझे वो संध्या
ढलते दिन की,
मैं हूँ वो निरुपमा जो,
दिन की नयी शुरुआत करने आई है
क्योकि साँझ होने को आई है.
bahut accha hai
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